ओ बी ओ मंच के सुधिजनों पिछले दिनों एक रचना पोस्ट की थी जिसे दुर्भाग्यवश मुझे डिलीट करना पड़ गया था| उसी रचना को आधार मान कर एक और रचना की है उन दोनों को ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ दोनों एक ही बह्र और एक ही काफ़िये पर आधारित हैं| पहली रचना कुछ दिन पूर्व ओ बी ओ पर ही प्रकाशित की थी दूसरी अभी हाल में ही लिखी है| मैं नहीं जानता कि ये दोनों ग़ज़ल की कसौटी पर खरी उतरती हैं या नहीं| मंच पर उपस्थित विद्वतजनों से आग्रह है कि वे मुझे मेरी त्रुटियों से अवगत कराएँ और मार्गदर्शन करें| विशेष तौर पर प्रधान संपादक आदरणीय योगराज जी, सौरभ पाण्डेय जी और वीनस केसरी जी से अनुरोध है कि यहाँ दृष्टिपात करें और यथोचित सलाह दें| जितना मैंने सीखा है उस हिसाब से ये रचनाएँ गैर मुरद्दफ़ हैं| बह्र है २२१२-१२२ और काफ़िया है 'आना'|
(सुधारे गए या नए जोड़े गए शे'रों को लाल रंग में दिया है)
(१)
सीखा है बस निभाना
रिश्ते न आज़माना;
हैं ज़िंदगी रवाना,
आना है और जाना;
हँसता है आदमी जो,
तौफ़ीक़ या दीवाना;
किस जुर्म की सज़ा है,
बिखरा है आशियाना;
आँखों में अश्क़ लाये,
इक दर्द का तराना;
फूलों से मन भरा तो,
काँटों से दिल लगाना;
ऐ ज़ीस्त है गुज़ारिश,
तू मेरे घर भी आना;
कुछ प्यार लेके दिल में,
उनसे नज़र मिलाना;
अच्छा नहीं चलन ये,
मासूम को सताना;
महबूब से मुहब्बत,
अच्छा नहीं छुपाना;
समझेगा पीर कैसे,
बेदर्द ये ज़माना;
(२)
सीखा नहीं निभाना,
वादा बना फ़साना;
उनकी ये है रवायत,
क़समों को तोड़ जाना;
भूला नहीं है बचपन,
बेहद हसीं ज़माना;
माँ याद है अभी तू,
दिल से तेरा लगाना;
लज़्ज़त भरा कलेवा,
तेरा हाथ से खिलाना;
वो रूठना मेरा और,
तेरा मुझे मनाना ;
दिल आज कितना ख़ुश है,
कोई गीत गुनगुनाना;
वो दिन थे कितने सुन्दर,
मुश्किल उन्हें भुलाना;
है सालता अभी तक,
तेरा वो एक बहाना;
समझा रहा हक़ीक़त,
सपना मगर सजाना;
लौटा है आज फिर वो,
मौसम बड़ा सुहाना;
आया वली है दर पर,
नज़रें ज़रा बिछाना;
तू झाँक ले गिरेबां,
आँखें तभी दिखाना;
खा कर गिरा है ठोकर,
हाथों से तुम उठाना;
मौक़ा मिला जहाँ भी,
चुटकी में तुम भुनाना;
Comment
भाई गणेश जी आप मेरी बात को केवल इसलिए मान रहे हैं कि आपके पास पुख्ता जानकारी नहीं है ? या इसलिए मान रहे हैं कि अरूजानुसार मैंने सही बात कही है ? आप निः संदेह श्रेष्ठजन से इस पर चर्चा कर लें, यदि इस सन्दर्भ में कोंई इससे इतर कुछ बात कहता है तो मुझे भी बताईएगा मैं अपनी जानकारी में संशोधन कर लूँगा ...
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भाई आपको अंतर नहीं लगा तो यह आपकी अपनी समझ है इसमें मैं यही कह सकता हूँ कि और मनन कीजिये शायद कुछ अंतर सूझें ...
यदि आप वाक्य के व्याकरण पर चर्चा करना चाहते हैं तो यह अलग बात है, फिर आप गुरुवार श्री पंकज सुबीर जी से संपर्क करें क्योकि लेख उनका है और यदि आप मतला और हुस्ने मतला के सन्दर्भ में बात करना चाहते हैं तो मैंने अपनी जानकारी और समझ में बात स्पष्ट कर दी है
सादर
आदरणीय गुरुदेव पंकज सुब्बीर जी से मैंने इस सम्बन्ध में वार्ता किया और उनका जवाब यह है .....
हुस्ने मतला, मतले के ठीक बाद आता है आगे नहीं आता । और बाज दफा तो एक से अधिक भी हुस्ने मतला हो सकते हैं । मैंने चार से पांच तक भी हुस्ने मतला वाली ग़ज़लें देखी हैं । हां लेकिन ये तय है कि सब मुख्य मतले के ठीक बाद ही आते हैं । और उनको पढ़ते समय शायर को बोलना होता है कि ये हुस्ने मतला है । एक बार सामान्य शेर आ जाएं तो फिर हुस्ने मतला नहीं आ सकता क्योंकि तब वो ऐब हो जाता है । इसलिये हुस्ने मतला को ठीक मतले के बाद ही आना होगा ।
शंका का समाधान हुआ, आभार आदरणीय गुरुदेव पंकज सुब्बीर जी तथा आभार भाई वीनस जी |
भाई वीनस जी, चूकी मेरे पास इस सम्बन्ध में पुख्ता जानकारी नहीं है, इसलिए मैं आपकी बात मान रहा हूँ और अपने स्तर से और लोगो से जानकारी एकत्र कर रहा हूँ |
किन्तु /// “आगे का कोई शे'र भी ऐसा आ रहा है” न कि "आगे का कोई भी शे'र ऐसा आ रहा है"
दोनों के अर्थ में जमीन आसमान का अंतर है ///
यह जमीन आसमान का अंतर मुझे नहीं समझ में आया, दुसरे वाक्य में "भी" लिखने से बात में जरा और वजन पड़ता दिख रहा है, कोई भी शेर कहने से तो यही लगता है कि आगे आने वाले कोई भी शेर जिनके दोनों मिसरों में काफिया रदीफ़ का पालन किया गया हो उसे हुस्ने मतला कहा जायेगा | कोई का मतलब जस्ट आगे वाला कैसे समझे ?
मैंने आपके द्वारा कहे गए वाक्य को एक उदाहरण से समझने का प्रयास किया है साथ में जमीन आसमान के अंतर को भी जानने का प्रयास किया है ....
(क्लास रूम मे मास्टर साहब पहली पक्ति में बैठे बच्चों से कहते है )
आगे का कोई शे'र भी ऐसा आ रहा है => आगे का कोई लड़का भी ऐसा है, जो यूनिफार्म पहना हो वो मेरे पास आवे |
आगे का कोई भी शे'र ऐसा आ रहा है => आगे का कोई भी लड़का ऐसा है, जो यूनिफार्म पहना हो वो मेरे पास आवे |
मुझे जमीन आसमान का फर्क नहीं लगा |
भाई गणेश जी जरूर स्पष्ट करना चाहूँगा,,, जितना भी मतला ग़ज़ल में लिखा जायेगा उन्हें ग़ज़ल में शीर्ष क्रम में रखा जायेगा, जैसे दो मतला है तो पहले दोनो मतला लिखा जायेगा फिर बाकी शेर और यदि मक्ता है तो उसे सबसे अंत में
मतला और हुस्ने मतला में कोंई अंतर नहीं होता है, जो मतला सबसे पहले आये वो मतला जो मतला उसके बाद आये वो हुस्ने मतला और यदि उसके बाद तीसरा मतला भी है तो उसे भी हुस्ने मतला कहेंगे प्रयोग के तौर पर शायर कभी कभी ४-५ मतला + एक दो-शेर की ग़ज़ल भी लिखते हैं ...
हुस्ने मतला कहीं भी ग़ज़ल के बीच में नहीं रखा जा सकता है
ध्यान रखने की बात है कि पहले मतले से ही हम काफिया रदीफ को चुनते हैं और अन्य मतलों में इसका वैसा ही सटीक निर्वाह होना जरूरी है, ताकि यदि हम पहला मतला हटा दें तो हुस्ने मतला ही मतला बन जाए और बाके के शेर में उस लिहाज से भी काफिया का निर्वाह अरूजनुसार हो रहा हो ...
गुरुदेव श्री पंकज सुबीर ने भी आपके द्वारा प्रस्तुत लेख में यही कहा है ...
। क़ायदे में तो मतला एक ही होगा किंतु यदि आगे का कोई शे'र भी ऐसा आ रहा है जिसमें दोनों मिसरों में काफिया है तो उसको हुस्ने मतला कहा जाता है
अर्थात मतले के बाद शेर ऐसा है जिसमें दोनों मिसरे में रदीफ काफिया निभाया गया है तो उसे हुस्ने मतला कहेंगे,
स्पष्ट कर दूं कि गुरुदेव ने लिखा है – “आगे का कोई शे'र भी ऐसा आ रहा है” न कि "आगे का कोई भी शे'र ऐसा आ रहा है"
दोनों के अर्थ में जमीन आसमान का अंतर है
यदि आपको कोंई उलझन हो तो आप गुरुदेव से फोन या मेल द्वारा संपर्क कर सकते हैं
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इस सन्दर्भ से अलग एक बात बताना चाहूँगा कि पहले के पहले के भी बहुत पहले {अर्थात २०० -३०० साल पहले :)} ये रिवाज था कि यदि शायर किसी एक ही ग़ज़ल में ४०-५० शेर कह रहे हैं तो हर ९ शेर के बाद एक मतला रखा जाता था और इस तरह हर नौवा शेर मतला होता था | मगर ये केवल जानकारी के लिए है क्योकि अब ऐसा नहीं होता है
मुझे भी ये बात समझ में आ गयी है कि अगर वह मतला है तो उसे शीर्ष पर ही होना चाहिए| आभार वीनस जी!! :))
जी बिलकुल अरुण जी| ओ बी ओ मंच की यही तो विशिष्टता है| बहरहाल आपकी आह्लादित करती प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रकट करता हूँ| :))
प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार मृदु जी|
वीनस जी,
अच्छा लगा आपसे इतनी बारीक़ तकनीकी जानकारी पा कर| तकाबुले रदीफ़ का दोष अब पूरी तरह से समझ आ गया है| 'भरती' के शे'रों की बाबत भी अब स्थिति काफ़ी हद तक स्पष्ट हो गयी है| हुस्ने मतला के लिए आपने बतलाया है कि उसे मतले के ठीक बाद आना चाहिए मैंने ऐसा सोचा भी था मगर बाद में उसे मध्य में डाल दिया| भाई गणेश जी ने भी मुझे काफ़ी हद तक दिशा निर्देशित कर के मेरे ख़यालों पर छाए भ्रम के बादलों को विच्छिन्न किया है| समय निकाल कर इस ग़ज़ल के दोष दूर करने का प्रयास करता हूँ| अरूज़ पर यही कहूँगा कि मैं अक्सर अपनी रचनाओं को किसी तरन्नुम या धुन में बाँधने का प्रयास करता हूँ और उस कारण कई बार ये मात्रिक दोष मालूम नहीं चलता मगर पढ़ने की दृष्टि से वो बरक़रार ही रहेगा इसलिए भविष्य में इस तरह की त्रुटियों से बचने का यथासंभव प्रयास करूँगा| आप सभी को हार्दिक आभार कि आपने मेरा ज्ञानवर्धन किया और एक रचनाकार के तौर पर मुझमें सुधार ले आया जो आगे भी अपेक्षित रहेगा|
वाह ! ये गज़ल तो पूरी की पूरी गज़ल की कक्षा हो गई ! बहुत सी बारीकियां सिखने को मिली ! धन्यवाद संदीप सर ! और आभार गुरुजनों का !
भाई वीनस जी, एक बात को जरा स्पष्ट करना चाहेंगे, क्या हुस्ने मतला तुरंत मतला के बाद ही आना आवश्यक है या पूरी ग़ज़ल में कोई और मतला किसी भी नंबर पर रहे तो उसे हुस्ने मतला ही कहते है |
क्योंकि आदरणीय पंकज सुबीर जी ने इस सम्बन्ध में ऐसा कुछ नहीं कहा है कि " मतले के बाद तुरंत आने वाले मतले को ही हुस्ने मतला कहा जाता है "
बकौल आदरणीय पंकज सुबीर जी के शब्दों में ......
"मतला : ग़ज़ल के पहले शे'र के दोनों मिसरों में क़ाफिया होता है इस शे'र को कहा जाता है ग़ज़ल का मतला शाइर यहीं से शुरूआत करता है ग़ज़ल का मतला अर्ज़ है । क़ायदे में तो मतला एक ही होगा किंतु यदि आगे का कोई शे'र भी ऐसा आ रहा है जिसमें दोनों मिसरों में काफिया है तो उसको हुस्ने मतला कहा जाता है वैसे मतला एक ही होता है पर बाज शाइर एक से ज़्यादा भी मतले रखते हैं । ग़ज़ल का पहला शे'र जो कुछ भी था उसकी ही तुक आगे के शे'रों के मिसरा सानी में मिलानी है "
कृपया स्पष्ट करे, क्यों कि इसे लेकर मैं भी दुविधा में हूँ |
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