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सच में आज हम आधुनिकिकरण के अन्धाधुन्ध भागदौड़ मे पवित्र नदियों को प्रतिदिन और प्रदूषित कर रहे हैं। सच्चाई यह हो चुकी है कि लोग गङ्गा जैसी पावन नदी मे भी नही नहाते।
गङ्गा जैसी दूषित हो रही नदियो के बारे मे सुन्दर एवँ सामयिक रचना।
बधाई
वाह आदरणीय अभिनव जी .. आपने तो बहुत खूबसूरती से इंसानों औकात बता दी ... सच तो है पंक्षी प्रकृति के अब भी उतना ही करीब है जितना पहले था . पर हमने तो सूरत ही बदल दी ..
बधाई आपको
behad shaandar rachna ....................kadve sach ko bayaan karti ..................aur maa ganga ke aastitva ko apne hi kaise mitaane ke liye prayash rat hain batati .....waah
आदरणीय श्री संपादक महोदय ! आपकी इस सटीक समीक्षा ने काव्य को नया आयाम दिया है हार्दिक आभार आपका !!
//और अब हर शाम अँधेरे में उस काले नाले की आरती उतार//
बहुत कड़वा सच ब्यान किया है भाई अरुण जी, सच में हम कितने जाहिल हो चुके हैं.
//इस बार पहले सी गंगा को न पाकर दुखी हैं
मगर ये प्रण है अगली बार हम ओल्गा से भर भर चोंच लायेंगे जल//
यह पंक्ति दिल को कचोट ले जाने वाली है, यानि कि बेजुबान पक्षियों को तो चिंता है मगर हम हैं कि अपनी माँ की दुर्गति से गाफिल हुए बैठे हैं. इस सारगर्भित रचना पर मेरी दिली बधाई स्वीकार करें.
दिली रूप से शुक्रिया सुरेन्द्र जी कविता पसंद करने और टिप्पणी करने के लिए !!
आदरणीया रेखा जी हार्दिक रूप से धन्यवाद !!
ये यथार्थ चित्रण आपको पसंद आया आभारी हूँ श्री भावेश जी !!
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