ट्रेन तकरीबन आधी रात के समय स्टेशन पर पहुंची, राजीव एक हाथ में सूटकेस संभालते पत्नी निधि को साथ लेकर जल्दी से ट्रेन से उतरा, अमूमन चहल पहल वाले इस स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था, वहां केवल तीन चार ऑटो रिक्शा वाले ही मौजूद थे किन्तु उनमे भी सवारी बैठाने की कोई चिल्ल पौं न थी | राजीव ने बारी बारी सभी से कृष्णा कालोनी चलने को कहा, लेकिन कोई जाने को तैयार ही नहीं हुआ, तो उसने पूछा,
"आखिर बात क्या हैं, क्यों नहीं जाना चाहते ?"
"शहर के हालत अच्छे नहीं है बाबूजी, आज कुछ असामाजिक तत्वों ने काफी हंगामा किया है कई टैक्सी, बस, ऑटो, बिजली ट्रांसफार्मर और सरकारी कार्यालयों में आग लगा दी है."
बहुत समझाने बुझाने पर एक ऑटो वाला कालोनी से एक किलोमीटर पहले मुख्य सड़क तक जाने को तैयार हुआ | पूरा शहर अँधेरे में डूबा था, मुख्य सड़क पर उतर कर वे दोनों पैदल ही कालोनी की तरफ बढ़े, निधि को डरा हुआ देखकर राजीव ने उसको हौसला देते हुए कहा,
"डरो मत, हम लोग दूसरे चौक से होकर चलते हैं, वहां से नज़दीक भी पड़ेगा"
"नहीं नहीं हम लोग गली से चलते है"
"निधि तुम समझ नहीं रही हो, इस गली से जाने में डर है, चौक पर हमेशा पुलिस वाले मौजूद रहते हैं, इसलिए उधर से जाना ही ठीक होगा |"
Comment
गणेश जी ये खौफ हर दिल में बस गया है कहीं ना कहीं जिन्हें हमारा रक्षक कहा जाता है वो भक्षक बनने में जरा सा समय नहीं लगते है.........आपकी हर कथा अपनी बात बहुत ख़ूबसूरती से कहती है.......
आदरणीय भ्रमर जी, आपका कथन बिलकुल सत्य है, पुलिस की छवि आज तक आम जन में सामान्य नहीं हो पायी है, सराहना और उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार आपका |
आदरणीय बागी जी बहुत सुन्दर और सटीक ..आज के हालात और हमारा विश्वास हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर ऐसे ही प्रश्न खड़े करता है ये है अपना कानून और उसके रखवाले ...न जाने कब ये लोगों के दिलों में पैठ बना सकेंगे .....सच में कानून को प्यार मिले कानून लागू हो लोग एक विश्वास कायम कर सकें तो आनंद और आये .........
आभार आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी |
आदरणीय श्री अरुण अभिनव जी, मैं आपकी बातों से सहमत हूँ , सराहना हेतु बहुत बहुत आभार |
आदरणीय डॉ साहब, लेखक जो महसूस करता है वो ही लिखता है, किसी भी दृश्य को कई कोण से देखा जा सकता है |
//कभी हम अपने अंदर भी झाँककर तो देखें हम क्या कभी पुलिस की मदद करते हैं ....एक गवाही देनी पड़े तो बड़े बड़े बीमार पड़ जाते है...//
सोचने वाली बात है कि आखिर हम पुलिस को क्यों मदद नहीं करते ?? इस प्रश्न में ही उत्तर छुपा हुआ है, शायद इसका उत्तर है "खौफ"
प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार |
यह कटु सत्य है | जिसे रहनुमा होना चाहिए था वही लूटने की ताक में बैठा मिलता है | यह महकमा खुद के गिरेबान में झांके तब ही स्थिति संभल सकती है | हार्दिक साधुवाद इस सशक्त रचना पर आदरणीय श्री बागी जी !!
आदरणीय अलबेला भाई साहब, आपकी टिप्पणी मेरे लिए मायने रखती है , आपको लघु कथा पसंद आई, लेखन सफल हुआ , आभार आपका |
बागडे साहब, उत्साहवर्धन हेतु धन्यवाद |
आशीष भाई, सराहना हेतु आभार,
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