ज़माने भर की सताइश भी बहुत कम है
जोतेरे दहनपे मेरी तारीफ़का एक ख़म है
इक मुहब्बतथी जावेदां वोभी नहीं नसीब
इस आलमे फना में क्या दूसरा अलम है
कहानी नई नहीं अजअज़ल यही दास्ताँहै
दिल है तो दर्द है, मुहब्बत है तो गम है
आओ बताएं क्याक्या है बागेमुहब्बत में
जुल्म है ज़ोर है ज़ब्र है जफा है सितम है
ज़िंदगी एकसी है दर्द एक इन्केशाफ एक
आँखों को जैसे अश्क गुलों को शबनम है
ये कायनात कोई ख्वाब बीदा परीज़ादी है
अपनी अपनी सोचहै और अपना भरम है
आओगे यहीं लौटके पूराकरने फेलेनाकिस
इस ज़मींपे दोज़ख है और यहींपे इरम है
राज़ सोचिए कि पसे मर्ग होगा क्या ठौर
घर बना लें आलामेबालामें जो मुकद्दम है
© राज़ नवादवी
भोपाल, अर्धरात्रि, ०१.३४, २५/०६/२०१२
सताइश- प्रशंसा, स्तुति; दहन- मुंह; ख़म- वक्रता; जावेदां- नित्य, अनश्वर; आलमे फना- मृत्युलोक; आलम- दुःख; अजअज़ल- सृष्टि के आरम्भ से; सितम- अत्याचार; इन्केशाफ- अभिव्यक्ति; कायनात- ब्रहमाण्ड; ख्वाब बीदा- स्वप्निल; फेलेनाकिस- अपूर्ण कर्म; दोज़ख- नरक; इरम- स्वर्ग; पसे मर्ग- मृत्यु के बाद; आलामेबालामें- परलोक में; मुकद्दम- प्रधान, सर्वोपरि.
Comment
धन्यवाद भाई अरुण एवं उमाशंकर जी जो आपने पढाने के ज़हमत उठाई!
- राज़ नवादवी
खूबसूरत हास्य गज़ल
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