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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४

बहुत कुछ हमने पढ़ा है किताबों में

ज़िंदगी मगर नहीं समातीहै बाबों में

 

इत्मीनान हुए तो बेचैन हो उठे हम

सुकूंकी आदत होगई है इज्तेराबों में

 

बेपर्दा हुएतो पहचान न पाए तुमको

जोभी देखाहै वो देखा है हिजाबों में 

 

तुम गएतो खराबातेइश्क उजड़ गया

नशा अब कहाँ बाकी रहा शराबों में

 

कारिज़ थे जो तेरे होगए हैं कर्ज़दार

न जाने चूक कहाँ होगई हिसाबों में

 

हमें धोखामिला उनसे जोथे मोतेबर

तुम सबात ढूँढते हो खानाखराबों में 

 

चाहाकि छूके देखें पे हैफ ये ज़मीर

हम उलझके रहगए अज़ाबोसवाबोमें

 

राज़ वो गए बज़्म से क्या ढूँढते हो 

खुश्बू हवा लेगई क्यारहा गुलाबों में

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, संध्याकाल ०८.०९, २६/०६/२०१२ 

Views: 413

Comment

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Comment by राज़ नवादवी on June 28, 2012 at 10:22am

धन्यवाद भाई अरुण एवं उमाशंकर जी जो आपने पढाने के ज़हमत उठाई! 

- राज़ नवादवी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 28, 2012 at 12:00am

खूबसूरत हास्य गज़ल

Comment by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 9:19am

शुक्रिया राजेश कुमारी जी आपकी दादोतहसीन और हौसलाअफजाई का! हमें भी आप सबों का सुखद साथ मिला है ओबीओ पर! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 27, 2012 at 9:05am

बेपर्दा हुएतो पहचान न पाए तुमको

जोभी देखाहै वो देखा है हिजाबों में 

 

तुम गएतो खराबातेइश्क उजड़ गया

नशा अब कहाँ बाकी रहा शराबों में

 राज़ नवाद्वी जी बहुत लाजबाब ग़ज़ल है सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं ओ बी ओ  पर आपकी एंट्री सुखद है आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा 

Comment by Albela Khatri on June 26, 2012 at 11:16pm

पढ़ कर सुकून मिला  राज़ साहेब !
शुक्रिया !

Comment by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:08pm

शुक्रिया जनाब अलबेला जी, आपने पढ़ने की ज़हमत उठाई!

Comment by Albela Khatri on June 26, 2012 at 10:37pm

gazal mubaraq ho janab  raaz navadavi ji..........

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