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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३१

(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)              

किधर हैं वो ज़ंदगी के  मोड़.....

 

कहाँ है मेरी आँखों का

वो नीला समंदर

जिसमें तुम डूब जाना चाहते थे

कहाँ हैं मेरी कुर्बत के  वो खुनक साये

जिसके  तुम शैदाई थे

कहाँ है मेरे सीने में धड़कता

वो उदास दिल

जिसके  हासिल का तुम्हें नाज़ था

कहाँ है वो मेरी तक़रीर-ए-बिस्मिल

जिसके  तुम कायल थे

कहाँ है वो कूचा-ए-लड़कपन

जहाँ हम मिले थे पहली बार

कहाँ है वो ख़लिहान

जो हमारी सरगोश मुहब्बत का सनमखा़ना था

कहाँ है वो राह

जिसपे चले थे साथ-साथ

उफ़़क़ की दहलीज़ तक

कहाँ है वो घर की दीवार

जिसके  इस पार मैं था

और उस पार तुम

किधर हैं वो ज़िंदगी के  मोड़

जहाँ से तुम

उधर मुड़ गये और

मैं इधर?

 

© राज़ नवादवी

खगौल, दानापुर

(२३/०८/१९९६)

Views: 368

Comment

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Comment by राज़ नवादवी on July 3, 2012 at 10:08pm

प्रिय अरुण जी, आपने जिस करीबी से पढ़ा उस करीबी से ही अपने दिल के उद्गारों के फूल हमपे बरसाए. उनके छुअन के  भीने  भीने एहसास का लम्स अब भी मेरे कालिब पे जगह जगह मंकूश है. मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ. 

- राज़ नवादवी.  
Comment by राज़ नवादवी on July 3, 2012 at 10:03pm

सौरभ भाई, आपका अंदाज़ेतहसीन भी अपने आप में इक शायरी है. बेहद तसव्वुफाना, मुलायमियत की रगों में दौड़ता एहसासों का रंगीन लहू. आपका सादर धन्यवाद! 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 1, 2012 at 2:33pm

कुछ रहा है कहाँ जो रहेगा.  कुछ रुका है कहाँ जो रुकेगा. जो रहता है और रुकता है वो बस यादों की कड़ियाँ भर होती हैं. जिन्हें छुआ नहीं जीया जाता है. इस तिल-तिल जीने को कविता कहते हैं.

राज़ साहब, आप कविता जीते जाइये.  सादर 

Comment by Abhinav Arun on July 1, 2012 at 2:15pm

किधर हैं वो ज़िंदगी के  मोड़

जहाँ से तुम

उधर मुड़ गये और

मैं इधर?

लूट लिया जी !! इस निर्बोध प्रश्न ने | कौन आपके अंदाज़े बयाँ पर फ़िदा नहीं होगा ... हाँ अब तो आप अपरिचित नहीं रहे बहुत शानदार जज़्बात और उतनी ही जानदार उनकी बयानी !!

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