अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम|
जज्बातों कि लाश को सीढियाँ बना मंजिल तो पा ली,
पर क्या अब खुद को इन्सान कह सकते हैं हम|
अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख लिया,
अपना तो न मिला, खुद को भी खो बैठे हम|
हर एक रिश्ता बंध गया है, स्वार्थ की जंजीरों से,
न जाने कैसे दलदल में फंस गये हम|
ऐ खुदा ! तुझसे क्या शिकायत करें तेरी कुदरत को लेकर,
आज अपनी करतूतों से तुझे भी शर्मिंदा कर गये हम|
सुबह को उठकर शराब से जो मुंह धोते हैं रोजाना,
रात को कितनी पी, किससे हिसाब मांग रहे हम|
ये मत सोचना दोस्तों, सदा अफ़सोस करते हैं हालात पर,
अक्सर अपने आसुओं को मुस्कराहटों में बदला करते हैं हम
अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम |
Comment
सवी जी नमस्ते, सच्चाई बयां करती कविता के लिए हार्दिक बधाई
बहुत अच्छा लिखा है आपने
अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम
//अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख लिया,
अपना तो न मिला, खुद को भी खो बैठे हम|//
वाह वाह वाह सावी जी, क्या दर्द उभर कर सामने आया है इन पंक्तियों से. बहुत खूब, बधाई स्वीकार करें.
हर एक रिश्ता बंध गया है, स्वार्थ की जंजीरों से,
न जाने कैसे दलदल में फंस गये हम|
आदरणीया सवी जी चिंता जनक हालत हैं सब बदला जा रहा है ...काश अपने गिरेबान में देख सुधरें सब ...बहुत सुन्दर रचना ..जय श्री राधे
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