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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३६

....तो तुम होती

 

रातों में तन्हाई नहीं होती

तो तुम होती

दुखों की परछाई नहीं होती

तो तुम होती

ज़िंदगी में बेपर्वाई नहीं होती

तो तुम होती

खुदा ने मेरी किस्मत बनाई नहीं होती

तो तुम होती

ये अयालदारी, ये जीस्तेकुनबाई नहीं होती

तो तुम होती

खामखाह हमने बात बढ़ाई नहीं होती

तो तुम होती

पैदाइशेखल्क के मरकज़ में जुदाई नहीं होती

तो तुम होती

हममें तुममें तश्वीशेआबाई नहीं होती

तो तुम होती

ज़िंदगी ने अपनी मजबूरियाँ सुनाई नहीं होती

तो तुम होती

हमने कुछ बातें ज़िंदगी की छुपाई नहीं होती

तो तुम होती

मुहब्बत के साथ रुसवाई नहीं होती

तो तुम होती

ज़िंदगी सिर्फ एक तमाशाई नहीं होती

तो तुम होती

नाम्बोल और कलकत्ते के बीच खाई नहीं होती

तो तुम होती

 

मुझे भी ज़िंदगी की मुदाखलत पे हैरत है

सच ही कहते हैं कि सबकी अपनी अपनी किस्मत है

इक तू नहीं है तो ज़िंदगी में कितनी दौलत है!

 

© राज़ नवादवी

पुणे, १५/०३/२०१२

 

मानी-

अयालदारी- घर गृहस्थी, बाल-बच्चे; जीस्तेकुनबाई- पारिवारिक जीवन; पैदाइशेखल्क के मरकज़ में जुदाई नहीं होती- सृष्टि की उत्पत्ति के मूल में विरह नहीं होती तो; तश्वीशेआबाई- पुरखों की चिंताएं; रुसवाई- बदनामी; तमाशाई- तमाशा देखने वाला; नाम्बोल- मणिपुर में इम्फाल के पास पहाड़ियों में बसा इक गाँव; मुदाखलत- हस्तक्षेप

 

 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on September 21, 2012 at 12:28am

शुक्रिया आपका....यही दौलतेदर्द दर्देपैदाइश बन गई. ख्वाहिश न हुई पूरी, पे एक बूतेख्वाहिश बन गई. 

Comment by seema agrawal on September 21, 2012 at 12:23am

मुझे भी ज़िंदगी की मुदाखलत पे हैरत है

सच ही कहते हैं कि सबकी अपनी अपनी किस्मत है

इक तू नहीं है तो ज़िंदगी में कितनी दौलत है!...दिल से निकले दर्द का सिलसिला किस जगह रुका ...........
बहुत खूबसूरत नज़्म 

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