अनछुआ चैतन्य
क्या याद हैं
तुम्हें
वो लम्हे,
जब
हम तुम मिले थे ?
तब सिर्फ़
एक दूसरे को
ही नहीं सुना था हमने,
बल्कि,
सुना था हमने
उस शाश्वत खामोशी को
जिसने
हमें अद्वैत कर दिया था....
तब सिर्फ़
सान्निध्य को
ही नहीं जिया था हमने,
बल्कि,
जिया था हमने
उस शून्यता को
जो रचयिता है
और विलय भी है
संपूर्ण सृष्टि की....
मेरे पास
कुछ न था
तुम्हें देने को
सिवाय अपनी चेतना के,
और तुम्हारे पास भी
सिर्फ़ चेतना ही तो थी
जिसे बाँटा था हमने
एक दूसरे से....
तब से
ये
‘अनछुआ चैतन्य’
ही तो है
जो ले जा रहा है हमें
अज्ञान के अन्धकार से दूर
एक नयी दृष्टि के साथ
सत्य के और करीब…
(23-02-2012)
Comment
आपका बहुत बहुत आभार आ. सीमा जी आपने इस रचना की गहनता व चिंतन को मान दिया.
इस रचना को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार.
मेरे पास
कुछ न था
तुम्हें देने को
सिवाय अपनी चेतना के,
और तुम्हारे पास भी
सिर्फ़ चेतना ही तो थी
जिसे बाँटा था हमनें
एक दूसरे से.... .......... अतिशय गहन और सुन्दर कविता ! हर बार की तरह !
सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिए आपको बधाई
शून्यता का आभाष होता है कुछ पंक्तियों में
खामोशी स्वर लहरी सुनाई देती है
यादों की स्वर्णिम तस्वीर भी दिखाई देती है
गुफ्तगू के पल गुफ्तगू करते नज़र आते हैं
वाह वाह
वाह प्राची जी कमाल की रचना है, बहुत खूब बधाई
अति सुन्दर! बधाई स्वीकार करें!
दुबारा पढ़ी ये रचना सम्रद्ध भाव से परिपूर्ण इस अनुपम रचना के लिए बधाई प्राची जी
आदरणीय डॉ प्राची सिंह जी.......
बहुत बहुत बधाई आपको इस अनुपम कविता के लिए
सचमुच शानदार रचना है
___संयोग से टंकण में कुछ अशुद्धियाँ हो गयी हैं ये दूर कर लेंगे तो और अच्छा हो जायेगा ऐसा मेरा विनम्र अनुरोध है ...अगर आप मान लेंगे तो ठीक वर्ना कोई बात नहीं........मैं कोई अन्ना हज़ारे तो हूँ नहीं जो अनशन पर बैठ जाऊं अपनी मांग भरवाने ( मनवाने ) के लिए :-)
__वाह !
बहुत खूब रचना !!!!!!
क्या याद हैं ____________है
तुम्हे _________________तुम्हें
वो लम्हे
जब
हम तुम मिले थे
तब सिर्फ़
एक दूसरे को
ही नही सुना था हमने
बल्कि
सुना था हमनें _____________हमने
उस शाश्वत खामोशी को
जिसने
हमें अद्वेत कर दिया था....
तब सिर्फ़
सानिध्य को _______________सान्निध्य
ही नहीं जिया था हमनें _________हमने
बल्कि
जिया था हमनें ________हमने
उस शून्यता को
जो रचयिता है
और विलय भी है
संपूर्ण सृष्टि की....
मेरे पास
कुछ न था
तुम्हें देने को
सिवाय अपनी चेतना के,
और तुम्हारे पास भी
सिर्फ़ चेतना ही तो थी
जिसे बाँटा था हमनें _______हमने
एक दूसरे से....
तब से
ये
‘अनछुआ चैतन्य’
ही तो है
जो ले जा रहा है हमें
अज्ञान के अंधकार से दूर __________अन्धकार
एक नयी दृष्टि के साथ
सत्य के और करीब…
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