सुर है लेकिन ताल नहीं है बाबाजी
पॉकेट है पर माल नहीं है बाबाजी
क्योंकर कोई चूमे हमको सावन में
अपने चिकने गाल नहीं है बाबाजी
दर्पण से उनको नफ़रत हो जाती है
जिनके सर पर बाल नहीं है बाबाजी
मेहमानों की ख़ातिरदारी कैसे हो
घर में आटा दाल नहीं है बाबाजी
देश बेच कर खाने वाले लोगों का
लोहू शायद लाल नहीं है बाबाजी
उनकी ममता घुट घुट कर मर जाती है
जिनके अपने लाल नहीं है बाबाजी
मंहगाई के बिच्छू डंक चुभाते हैं
मोटी अपनी खाल नहीं है बाबाजी
हास्यकवि 'अलबेला' ऐसा घोड़ा है
जिसके खुर में नाल नहीं है बाबाजी
-अलबेला खत्री
Comment
ये घोड़ा तो बगैर नाल ही सरपट दौड़ता है, वाह बहुत बढ़िया, बाबा के बहाने आप तो बहुत ही खुबसूरत अशआर कह गए है, लोहू पर एक बार ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा |
बधाई स्वीकार करें इस प्रस्तुति पर |
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