हिसाब ना माँगा कभी
अपने गम का उनसे
पर हर बात का मेरी वो
मुझसे हिसाब माँगते रहे ।
जिन्दगी की उलझनें थीं
पता नही कम थी या ज्यादा
लिखती रही मैं उन्हें और वो
मुझसे किताब माँगते रहे ।
काश ऐसा होता जो कभी
बीता लम्हा लौट के आता
मैं उनकी चाहत और वो
मुझसे मुलाकात माँगते रहे ।
कुछ सवाल अधूरे रह गये
जो मिल ना सके कभी
मैंने आज भी ढूंढे और वो
मुझसे जवाब माँगते रहे ।
- दीप्ति शर्मा
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आदरणीय आशीष जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ ।
आदरणीय अशोक कुमार जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ ।
आदरणीय संजय मिश्रा जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ ।
आदरणीय अम्बरीश जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ । यूँ ही मार्गदर्शन करते रहे शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ । यूँ ही मार्गदर्शन करते रहे शुक्रिया
आदरणीय अलबेला खत्री जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ । यूँ ही मार्गदर्शन करते रहे शुक्रिया
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आदरणीया डॉ प्राची जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी आपको रचना पसंद आयी बहुत आभारी हूँ ।
वाह दीप्ति जी, इक आह भी है छिपी है कविता मे इक उलाहना भी लगता है।
बढ़िया रचना पर बधाई स्वीकारें
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