मुख मण्डल उसका सतरंगा
सबका भेद करे वह नंगा
आज हि काम का कल बेकार
क्या वह टीवी ? नहीं अखबार
देह है भूरी मुख है लाल
पिछवाड़े से मुँह में डाल
बारिश में हो जाती चीड़ी
क्या वह कीड़ी ? नहिं भाई बीड़ी
रोज़ रात को मुँह में डालूं
चूस चास के पूरा खा लूँ
हाय वो मीठे रस की खान
क्या रसगुल्ला ? नहिं भई पान
गुड़ से ज़्यादा मीठी लागे
उसके पीछे मनवा भागे
नूरी नूरी रौशन रौशन
क्या वह सजनी ? नहीं पड़ोसन
-अलबेला खत्री
Comment
वाह रक्ताले साहेब.........वाह !
क्या बात है
___आभार
अलबेला जी
सादर, सुन्दर मुकरियाँ.बधाई.
भीतर से फिर बाहर लाते,
रोज रोज फिर धार बढाते,
दिल पर घाव करती गंभीर,
क्या यह खुखरी? ना जी मुकरी.
भाई जी ऐयाँ न करो.....
सीली सीली रुत म्ह सिलसिलो बन्द न करो........
सावन बुरो मान जावैगो....हा हा हा
वाह भाई अलबेला जी --हा- हां- हां ३५ वर्ष पूर्व पढ़ी कविता के साथ लेखक की पडौसन वाला चित्र वाकई अति सुन्दर और प्रभावी चेहरे वाला था | पर अब उस लेखक का नाम याद नहीं, उस अंक में आदरणीय तब्बसुम जी की "भोरासा" नमक कविता छपी थी, उनके पास शायद अंक मिल जाए, आपकी तो पहुँच होगी ही | ना ही धर्मयुग छाप रहा है, कलियुग जो आ गया है | हाँ यह सिलसिला जवान होता जा रहा है | इस सिलसिले को ख़त्म करते हुए आपको पुनः हार्दिक बधाई |
धन्यवाद धन्यवाद धन्यवाद
thank you thank you thank you
आदरणीय राजेश कुमारी जी
नम्बर नहीं दूंगा ....चाहो तो मिसेज को ले जाओ.......हा हा हा
___सादर
हा हा हा हा
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी आपकी याददाश्त गज़ब की है ..३५ साल पुरानी पड़ोसन की बात याद है तो पड़ोसन भी तो याद ही होगी...हा हा हा
आपकी पड़ोसन को हार्दिक बधाई.........
जय हो !
लगता है एकाध कह-मुकरी आप पर भी लिखनी पड़ेगी...हा हा हा
__सादर
धन्यवाद भाईजी.......
सादर नमन
अति सुन्दर प्रश्नावली कह्मुकरियाँ है इतनी सुन्दर आज के परिवेश में रोचक और रोमांटिक भी है
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