वो कब चली गयी पता ही नहीं चला. हुँह, वो जाती है तो जाया करे. हमारे पास भी वैकल्पिक व्यवस्था है. वैसे भी आजकल लोग-बाग विकल्पों से ही ज्यादा काम चलाते दीखते हैं. हम भी चलने तक तो चला ही लेते हैं. इस दफ़े का वाकया दरअसल अलस्सुबह नहीं बल्कि रात ही में शुरु हो गया था. समझ में तो तब आया जब विकल्प ने भी टांग उठा कर ’टें-टें’ करना शुरु कर दिया. जी हाँ, इन्वर्टर डिस्चार्ज हो जाने पर ऐसी ही आवाज में चीखता है. बड़कऊ की बीवी ने कुनकुनाते हुए ठसका मारा, "...और चलाओ पाँच-पाँच पंखे.. अब भुगतो...."
यों, कहिये तो, परिस्थिति का भान मुझे सुबह से ही कुछ-कुछ होने लगा था. अपने-अपने कुत्तों के साथ निकले अपने स्थूलकाय शरीर को टी-शर्ट और नेक्कर में ठूँसे साहबान आयतन में उनको भी मात देतीं, लुढकती-पुढ़कती अपनी-अपनी सहचरियों के साथ कान में इयर-फोन लगाए ’मोर्निंग रागा’ छोड़ मोबाइल पर बिजली के बारे में बातें करते हुए दीख रहे थे. मैं अपनी छत से ही सामने की सड़क पर ज़ुल्म करते इन दस्तों को देख कर ठस्स हुआ मज़ा लेता रहता हूँ. अब उनके सामने हवाई-चप्पल और तहमद में निकलना अजीब तो लगता ही है. कमतरी वाली फीलिंग आती है. यों एक दफ़े जोश में मैं भी नेक्कर, जूते वैगरह पर पैसे लुटा आया था. सुबह-सुबह कई बार बड़कऊ को साथ देने को कहा था. लेकिन उनकी बुढापे में नींद-कम की शिकायत और ’थोड़ा और सो लेने दो’ की झुँझलाहट सुन कर उन्हें आगे जगाना ही छोड़ दिया. तब से बड़कऊ, वो जूते, वो नेक्कर और मैं सभी आराम से रह रहे हैं, बिना एक-दूसरे को डिस्टर्ब किये.
लेकिन आज तो बिजली रानी ने सबकी नींद उडा दी थी. दिन तो खैर जैसे-तैसे निकल गया, लेकिन शाम घिरते न घिरते हालत बद से बदतर हो गयी. आम दिनों में बिजली के कट जाने पर हम पडोसियों के यहाँ झांक लिया करते हैं. उनके यहाँ भी कटी है तो शांत भाव से बैठ जाते हैं. लेकिन अबकी तो बात पडोस और मुहल्ले से आगे, बल्कि शहर-जिला से भी आगे, कई-कई राज्य लिये पूरे उत्तर भारत की थी. बिजली तो अब जाने कब आवे. इसी से थोड़े में ही सम्भलने की बात होने लगी थी. नहाने की तो दूर, ग्लास-भर पानी भी बाँटना पड़े की नौबत आ गयी थी.
शाम होते-होते सभी लगे बिलबिलाने. दूसरों की छोडो अपने शरीर का ही परिमल अब बास मे बदलने लगा था. मैं हैरान-परेशान घर में इधर-उधर चक्कर काट रहा था. तभी लाला भाई दिख गये. पास आये. मेरी हालत देख कर लगे हँसने, गोया मैं बन्दर लग रहा होऊँ. मेरी वैसे हालत उससे कम थी भी नहीं. मैं बार-बार पंखे के स्विच को दबा-दबा कर अपनी उम्मीदों को दिलासा दे रहा था. मेरी इस हरकत पर उन्होने अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में शान्त भाव से कहा, "अगर पंखे ऐसा कुछ करने से ही चलने लगें तो फ़िर ये अदना स्विच क्यों, मेन-स्विच को ही बार-बार दबाओ न.. देखो कहीं कुछ सुधर जाये..."
क्या करता, उनके इस फिकरे पर झेंप कर रह गया. उनकी बात थी भी जायज़. लेकिन मैं क्या अक्सर ऐसा सभी करते हैं. पूछिये उनसे जिनके घरों में इन्डिकेटर नहीं हुआ करता.
बाहर सडक पर चहल-पहल हो चली थी. आम दिनों में इस वक्त तक लोग घरों में दुबके होते हैं. लेकिन आज न तो चैनलों पर के ब्रेकिंग न्यूज हैं, न ’आनन्दी’ है, न ही ’राम कपूर’ हैं !
लाला भाई के साथ मैं भी बाहर निकल गया. बाहर कई जाने-अन्जाने चेहरे एक-दूसरे को घूर रहे थे. मुहल्ले में जो नये-नये आये थे वो बेगाने थे. जो पुराने थे उनसे भी मिले काफ़ी दिन हो गये थे. चलो इसी बहाने एक फ़ायदा हो गया था. मिलना-जुलना हो गया. तभी तिवारीजी नजर आये. कभी अपने ही साथ के हुआ करते थे. पर अब न अपने रह गये हैं और न साथ के. मनरेगा और जेएननर्म (JNnurm) ने उनके मन, तन, रहन, सहन सभी के नॉर्म को बदल कर रख दिया है. ’आजकल पांव जमीं पर नहीं पडते मेरे..’ गाना बने फिरते हैं. तिवारीजी उमस और गर्मी से कुछ ज्यादा ही परेशान दिख रहे थे. अपने आप को अलग करने के चक्कर में उन्होंने मन के साथ-साथ चारदिवारियों और खिड़कियों को भी बुलन्द करवा लिया था. सेण्ट्रलाइज़्ड एसी का मज़ा भोग रहे थे. सामान्य की आदत तो छूट ही गयी थी. इन्वर्टर के साथ-साथ वो जेनरेटर भी लेने का मन बना रहे थे आजकल में. डिओ और पाउडर से गमगमाते शरीर पर पसीने से गीला उनका मलमल का कुर्ता.. हाय ! बेचारे इस तरह से परेशान तो थे ही. एक परेशानी उनको और भी हो रही थ जिस कारण वे बात-बेबात बिना सर्दी के ही नाक पर बार-बार रुमाल फेर रहे थे. भाई, सभी सामान्यों के साथ-साथ मैं भी तो सुबह से बिना नहाये-धोये था ! हमें वे ऐसे देख रहे थे जैसे हम हम न हुए कचरे का भरा-पूरा डब्बा हो गये हों. हालत और हालात बोझिल हो रहे थे. तभी लाला भाई ने ऊपर देखते हुए कहा.".. वाह ! क्या चाँद निकला है...!"
तिवारीजी लगे आस-पास की मुँडेरों-छतों पर ताकने. ये आदत भी इतनी जल्दी जाती है क्या ? मुझे तो लगता है, चाँद को भी अब अपने नाम पे शक होने लगा होगा. ख़ैर.
मुझे भी लगा, जाने कितने दिनों बाद हमने चाँद को आज निहार कर देखा है. तभी छोटकऊ दौडता हुआ आया. बोला, "... पता है, मोमबत्ती के प्रकाश में दिखता भी है..!"
उसके लिये यह शोध ही नहीं घोर आश्चर्य का विषय था. उस बेचारे की भी क्या गलती थी ? आज तक उसने भरे-पूरे प्रकाश में जली कुछ मोमबत्तियों को फूँक मार सभी को बस सुर उठाते हुए ही देखा था, "..हैप्पि बर्थ डे टू यू...."
खैर, मैं तो चाँद को निहार रहा था. तभी तिवारीजी ने अपनी जानकारी फेंकी, "जानते हैं, चाँद पर भी जमीन बिक रही है. अमरीका वाले खूब खरीद रहे हैं..." बात तो वे ऐसे कर रहे थे गोया लगे हाथों वे भी छः-सात कट्ठा ले ही लेंगे. मैंने फिर चाँद की ओर ग़ौर से देखा. बेचारा चाँद भी क्या करता, वो हमारी ओर देखता हुआ दिखा, अपने को बिकते हुए ! आज तक उस पर प्रेमियों की शुद्ध-अशुद्ध नजरें हुआ करती थी, अब वह भू-माफ़ियाओं की भी निगाह में आ चुका था. लाला भाई ने तिवारीजी की सुन अपना मुँह ऐसे बनाया जैसे ’ये मूँ और मसूर की दाल.. झेलू स्साला..’ का फिकरा निगल रहे हों. बात को बदलते हुए हमने छोटकऊ से कहा, "बेटा, बचपन में हम इस चंदा को मामा कहते थे."
तिवारीजी को अपनी बात का कटना न सुहाया. वे अपनी बात के सिरे को फिर से पकडते हुए बोले, "लाला भाई, मेरे जीजाजी एक कालोनी बना रहे है. अगर पिलाट-विलाट लेना हो तो बताइयेगा."
मुझे तो उन्होंने इस सूचना लायक भी नहीं समझा. भाई, हैसियत-हैसियत की बात है. तिवारीजी ने घोर ब्लैकआउट में भी अपनी व्यावसायिक कला-कौशल का प्रदर्शन करते हुए दलाली का जुगाड़ कर लिया था. अचानक मेरे मोबाइल की घण्टी बजी. तिवारीजी को मुझमें सम्भावना नजर आने लगी, "वाह ! आपका मोबाइल अभी जिन्दा है ?!" फिर धीरे से कहा, "जरा अपना मोबाइल देंगे.."
तरेर कर मैंने पूछा, "आपका क्या हुआ.. वो बित्ते भर का खुजली वाला फोन ?"
एक बारगी तो तिवारीजी भी घबरा गये. ये खुजली वाला फोन क्या बला है !
बात लाला भाई ने सम्भाली, "भाई जी, इनका मतलब टच-स्क्रीन वाले मोबाइल से है.. क्या हुआ वो ?"
"ओह्हो...अच्छा-अच्छा !.. वो दरअसल.. उसकी बैट्री खत्म हो गयी है.."
अब मुझे अपने बाबाआदम जमाने के इस मोबाइल पर नाज़ होने लगा. भाई, अपना मोबाइल ही है, और कुछ नहीं और वो केवल मोबाइल का ही काम करता है.
धीरे-धीरे चाँद बादलों में आ गया था. ऐसा लग रहा था मानों तिवारीजी के अकारथ मतलबपन पर मुँह छिपा रहा हो. हवा धीरे-धीरे बह रही थी. लाला भाई ने कहा. "वाह, क्या आनन्द आ रहा है"
लेकिन तिवारी जी को आराम कहाँ ? उन्हें तो एसी की आदत थी. आस-पास ऐसे देख रहे थे मानों एसी के रिमोट से माहौल की ही कूलिंग ठीक कर देंगे.
अब तक सभी को रात की चिंता सताने लगी थी. मैने तो साहब, तैयारी कर रखी थी छत पर ही सोने की. चाँद की चाँदनी में पुरानी यादों को ताजा करते हुए. चाँद भी मुझे देख कर मानो मुस्कुराता हुआ गा रहा था -
‘आ जा सनम मधुर चाँदनी में हमतुम मिले तो वीराने में भी छा जायेगी बहार.. ’
तभी जोर का एक शोर उठा. चाँद की चाँदनी भी अचानक से कम हो गयी...
"बिजली आऽऽऽ गयीऽऽऽऽ......."
सड़क पर के सभी एक साथ अपने-अपने घरों की ओर भागे. आदत हो गयी है न, पंखे की ! कूलर की ! एसी की !.. फिर, किसी के लिये ’आनन्दी’, तो किसी को ’रामकपूर’, तो कुछ ये-वो वाले ही.. सबको पड़ी थी. टीवी जो ऑन हो चला था.. .
चाँद बेचारा एक बार फिर आसमान में अकेला रह गया था. पर इस उम्मीद के साथ, कि, बिजली फिर कभी इतनी देर के लिये जायेगी.. लोग-बाग फिर उसकी ओर निहारते हुए बाहर निकल कर आयेंगे.. चाँद पर फिर बात चल निकलेगी.. भले वाही-तबाही ही सही... .
*******************************
--शुभ्रांशु पाण्डेय
Comment
धन्यवाद वीनस जी,
सारे कमरे को इन्वर्टर से जोडने से ये समस्या आती है...हा...हा... हा..
बड़कऊ की बीवी ने कुनकुनाते हुए ठसका मारा, "...और चलाओ पाँच-पाँच पंखे.. अब भुगतो...."
हा हा हा जय हो भाई जी
आदरणीय उमाशंकर जी, रचना पर विचार को साझा करने के लिये आपका सादर धन्यवाद..
आदरणीय सूर्या बाली जी, आप लोगों के विचार ही नये आयामों को गढने में सहायता देते हैं...उस दिन की गोष्ठी में आप सभी का कहना सिर-माथे लिया और एक और रचना के साथ सामने आया हूँ.
इसी तरह सहयोग बनाये रखें..सादर धन्यवाद.
आदरणीय लक्ष्मी मीनु जी, उत्साह वर्धन के लिये धन्यवाद.
धन्यवाद संजय जी, इसी हँसी की इच्छा रखता था........
बहुत जानदार व्यंग रचना चाँद को सामने रख कर इतने बढ़िया ढंग से बिजली की समस्या का चित्रण काबीले तारीफ है
शुभ्रांशु जी सादर बधाई
शुभ्रांशु जी आज के जीवन , पड़ोसी और बिजली की मूल भूत आवश्यकता और एक सामनी इंसान की पीड़ा पर बहुत बढ़िया और करारा व्यंग्य। तिवारी जी का उल्लेख करके आज की बहुत बड़ी हकीकत को सामने रख दिया है आपने.....बहुत सुंदर आलेख के लिए आप बधाई के पात्र है। बहुत बहुत मुबारकबाद !!
sundar....... badhai
waah, kyaa gudgudi ki hai pandey jee, maja aa gaya, sshuru sey antim tak hasta raha, keep it up.
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