हे वनराज ! तुम निंदनीय हो !
अक्षम हो प्रजारक्षा में,
असमर्थ हो हमारी प्राचीन
गौरवपूर्ण विरासत सँभालने में ;
आक्रांता लाँघ रहे हैं सीमायें,
नित्य कर रहे हैं अतिक्रमण
हमारी भावनाओं का,
रौंद रहे हैं किसलयों को,
धधका रहे हैं दावानल,
नोच-नोच तोड़ रहे हैं घोंसले
सदियों से बसे खगों के,
आतुर हैं इस कानन को
नर्क बनाने के लिए ;
और तुम ! शांतचित्त मूक हो !
मात्र निर्विवाद होने की अभिलाषा से !
केवल तुष्टिकरण के लिए !
हे मृगेंद्र ! धिक्कार है तुमपर !
राजधर्म का पालन नहीं कर सकते
तो त्याग दो सिंहासन,
उतार दो ये मुकुट,
फेंक दो वो तलवार जो जंग खा चुकी है
बरसों से म्यान में पड़े-पड़े ;
हमें किंचित मात्र आवश्यकता नहीं
ऐसे शासक की,
हम पशु कर लेंगे अपनी सुरक्षा,
रह लेंगे अधिक सुख से
अपनी मातृभूमि पर,
अपने वन में, अपनी मांद में |
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और तुम ! शांतचित्त मूक हो !
मात्र निर्विवाद होने की अभिलाषा से !
केवल तुष्टिकरण के लिए !.....................और ये तुष्टिकरण किसका ?क्या यह विवाद का विषय नहीं पर बात वही जिसकी लाठी .....................................................उसकी भैस ...
?
हमें किंचित मात्र आवश्यकता नहीं
ऐसे शासक की,
हम पशु कर लेंगे अपनी सुरक्षा,
रह लेंगे अधिक सुख से
अपनी मातृभूमि पर,
अपने वन में, अपनी मांद में |,बहुत बढ़िया कटाक्ष गौरव जी ,बहुत बहुत बधाई
अगर मैं सही हूँ तो इशारा /कटाक्ष हमारे देश के राजा पर है ???बहुत जबरदस्त !! अगर प्रजा त्राहि त्राहि कर रही है और तुम उसकी रक्षा करने में असमर्थ हो तो मूक बधिर बने रहने से अच्छा है त्याग दो ये सिंहासन
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