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नव मन की नव कल्पना,
नव अन्नत में उड़ने की है।
समस्त जगत के अंदर,
नव चेतना भरने की है॥

चाहता है यह नव मन,
मेरा संसार नवल हो जाये।
प्रेम क्षमा दया करुणा,
हर जन उर अंतर भर जाये॥

सब बन जायें अपने भाई,
ऊंच नीच भेद मिट जाये।
देश जाति धर्म भाषा के,
बंधन सारे टुट जायें॥

सब पर सब विश्वास करें,
अविश्वास की न हो रेखा।
इस मेरे नव मन ने भाई,
बस यही है सपना देखा॥

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Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2012 at 10:39pm

अक्षरी दोष के प्रति संवेदनशील रहना चाहिये.

शुभेच्छाएँ

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2012 at 8:22am
हार्दिक आभार नवल किशोर जी!
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2012 at 8:21am
रचना की सरहाना हेतु सादर आभार आदरणीय योगी सारस्वत जी आपने सत्य कहा-चञ्चलं हि मन: कृष्ण:।
मन चञ्चल होता है।लेकिन हम भारतियों की यही विशिष्टता रही है कि मनोनिग्रह पर ही बल दिया गया है और किया भी गया है।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2012 at 8:17am
आदरणीया रेखा जी रचना की सराहना हेतु सादर आभार।
Comment by Naval Kishor Soni on August 27, 2012 at 4:26pm

चाहता है यह नव मन,
मेरा संसार नवल हो जाये।
प्रेम क्षमा दया करुणा,
हर जन उर अंतर भर जाये॥ wah bahut khub bhai.....badhai.

Comment by Yogi Saraswat on August 27, 2012 at 10:46am

सब पर सब विश्वास करें,
अविश्वास की न हो रेखा।
इस मेरे नव मन ने भाई,
बस यही है सपना देखा॥

लेकिन त्रिपाठी जी ये मानव मन बड़ा ही चलाय मान होता है ! मानता कहाँ है ऐसी बातों को ? सुन्दर शब्द

Comment by Rekha Joshi on August 25, 2012 at 10:37pm

चाहता है यह नव मन,
मेरा संसार नवल हो जाये।
प्रेम क्षमा दया करुणा,
हर जन उर अंतर भर जाये॥,अति सुंदर चाहत त्रिपाठी जी ,बहुत बहुत बधाई 

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