जहाँ जोर ना चले तलवार का
जहाँ मोल ना हो व्यव्हार का
तब सन्देश का माध्यम बन
समस्या करती छू मन्तर
कभी प्रेम प्रसंग का ताना बुन
शब्द लाती मैं चुन चुन
व्याकुल हो जब कोई मन
अंकुश लगाती शंकित मन
सूचक दे छवि विषाद का
आन्तरिक सुख को करूं अपर्ण
वीर रस का जब
ब्खान हूँ करती
मुर्दों में भी जीवन भरती
शब्दों के मैं मोती बना
भावना ऐसी व्यक्त करती
नीरस जीवन में जब
रंग रस मैं भरती
संकोची हृदय की जब व्यथा सुनती
उन्मुक्त कहानी और किस्से सुना
पुलकित उनके हृदय करती
प्रकर्ति का श्रिंगार कर
कोकिला की तान पर
फूलो की मुस्कान पर
झूम झूम के घूम घूम के
नाच जो करती
कविता खुद-ब-खुद ही बनती
रिमझिम सी बरसात में
वसंत के हर्ष उल्लास में
कीर्ति का जब उसकी
कविता बन जब वर्णन करती
सबके मन को हर्षित करती
कविता का जब रूप मैं धरती
Comment
वास्तव में ऐसा लगता है कि यह कविता स्वतः ही बनी हो | सुन्दर अभिव्यक्ति पर बधाई फूल सिंह जी |
राजेश कुमारी जी प्रणाम,
आपका बहुत धन्यवाद................
फूल सिंह
रेखा जोशी जी प्रणाम,
आपका बहुत धन्यवाद................
फूल सिंह
प्रकर्ति का श्रिंगार कर
कोकिला की तान पर
फूलो की मुस्कान पर
झूम झूम के घूम घूम के
नाच जो करती
कविता खुद-ब-खुद ही बनती ,अति सुंदर भाव फूल सिंह जी ,बधाई
कविता के विभिन्न रूपों का सुन्दर वर्णन किया है बहुत खूब
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