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मन एक सागर
जहाँ ;
भावनाओं की जलपरियाँ
करती हैं अठखेलियाँ
विचारों के राजकुमारों के साथ ;
घात लगाये छुपे रहते
क्रोध के मगरमच्छ ;
लालच की व्हेल भयंकर मुँह फाड़े आतुर
निगल जाने को सबकुछ ;
घूमते रहते ऑक्टोपस दिवास्वप्नों के ;
आते हैं तूफान दुविधाओं के ;
विशालता ही वरदान है
और अभिशाप भी ;
अद्भुत विचित्रता को स्वयं में समेटे
एक अनोखा सम्पूर्ण संसार है
जो सीमाओं में रहकर भी
सीमाओं से मुक्त है ;

मन एक सागर
जहाँ ;
अतीत डूब के अपने अनुभवों से
प्रशस्त करता है मार्ग
भविष्य का ;
ऊपरी सतह को देख के
असंभव है अनुमान लगाना
तलहटी की वास्तविकताओं के बारे में ;
अथाह जल के मध्य स्थित द्वीप
पर्याप्त हैं बताने के लिए
ठहराव अल्पकालिक होता है
बहाव ही प्रकृति का मूल है ;
पग-पग पर दृष्टिगोचर होते है उदाहरण
धैर्य एवं संयम के लाभ के ;
गहराइयों में जाकर ही
मिलते हैं धर्म के सीप
मर्यादित आचरण के मोती लिये |

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Comment

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 29, 2012 at 10:15pm
आदरणीया प्राची दीदी...आपको कविता पसंद आई...आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...आपकी प्रतिक्रिया तो सदा उत्साहवर्धन करती है...

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 29, 2012 at 7:22pm

मन सागर की गहराइयों में उतर कर मोती चुन लाये हैं इस रचना में आप भाई कुमार गौरव जी. हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 

कृपया ध्यान दे...

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