यहाँ से दूर कोई आसमानों में टहलता है
अगर उसको बुलायें हम तो पल में आके मिलता है।।
वो कैसा है कहां है किस जगह दुनियां में मिलता है,
तेरे अन्दर,मेरे अन्दर वही आकर मचलता है।
अगर पूछे कोई जीवन क्या है,तो ये कहेंगे हम,
तरलता है,सरलता है,विफलता है,सफलता है।
हज़ारों ख़्वाहिशों के जंगलों में ले गयीं जैसे,
तुम्हारी आँखों में देखें तो सिमसिम कोई खुलता है।
ज़मीं ने जिसको अपनी बाँहों में भरकर मुहब्बत की,
किनारे काटने को फिर वही दरिया उछलता है।
अज़ब है आदमी ही आदमी को मारने को है,
फ़रिश्ता देखिये इन्सान होने को मचलता है।
हमारे हौंसले ही हमसे पहले काम करते हैं,
जहाँ हम मार दें ठोकर वहाँ पानी निकलता है।
Comment
सूबेसिंह सुजानजी, आपकी ग़ज़ल के कई शेर अनायास झूमने को बाध्य कर देते हैं. लेकिन बार-बार वज़्न गिराना बहुत अखरता है.
जैसे इस शेर के उला-मिसरा को लें -
अगर पूछे कोई जीवन क्या है,तो ये कहेंगे हम,
तरलता है,सरलता है,विफलता है,सफलता है। ... बहुत ही सुन्दर कहन का शेर बन सकता था. इसी तरह अन्य कुछ शेर हैं
बह्र को वैसे आपने बखूबी थामे रखा है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर सही दीखते शेर लय और गेयता में भी सही होने चाहिये.
बहरहाल, आपकी कहन और आपकी सोच को मैं सादर सलाम करता हूँ, जिनकी बिना पर आपकी यह ग़ज़ल मुकम्मल हो पायी है.
/अगर पूछे कोई जीवन क्या है,तो ये कहेंगे हम,
तरलता है,सरलता है,विफलता है,सफलता है।/
इस सीधे-सादे और सटीक फलसफे में ही जीवन की असल परिभाषा निहित है. इस शे'र की सादाबयानी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता. इस सृजन के लिए हार्दिक बधाई सुजान जी.
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