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सांझ की पंचायत में..
शफ़क की चादर में लिपटा
और जमुहाई लेता सूरज,
गुस्से से लाल-पीला होता हुआ
दे रहा था उलाहना...

'मुई शब..!
बिन बताये ही भाग जाती है..'
'सहर भी, एकदम दबे पांव
सिरहाने आकर बैठ जाती है..'

'और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह
चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर
उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?"

उफक ने डांट लगाई-
'ज्यादा चिल्ला मत..
तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'

माँ समझाती थी-
"उगते सूरज को तो सभी अर्घ्य देते है.."
- डूबते को क्यूँ नहीं देता अर्घ्य कोई.....

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Comment

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Comment by विवेक मिश्र on June 22, 2011 at 10:56pm
धन्यवाद अश्वनी शर्मा जी.
Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 26, 2011 at 10:58pm
uttam badhai
Comment by विवेक मिश्र on November 8, 2010 at 5:46pm
टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार नीलम जी.
Comment by Neelam Upadhyaya on November 8, 2010 at 4:36pm
विवेक जी, बहुत ही बेहतरीन रचना है । इसके लिए बहुत बहुत बधाई । एक छठ ही ऐसा त्यौहार है जिसमें डूबते सूरज को भी अर्घ्य दिया जाता है । लेकिन इसके बाद उगते सूरज को भी अर्घ्य देते हैं ।
Comment by विवेक मिश्र on October 29, 2010 at 12:52am
बहुत-बहुत धन्यवाद अभिनव जी.
Comment by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:15pm
बहुत खूब !! सुंदरतम अभिव्यक्ति का विरला अंदाज़ ख़ास है ,विवेक जी बेहतरीन रचना | मुबारक हो !!
Comment by विवेक मिश्र on October 27, 2010 at 2:06am
आपकी टिपण्णी का शुक्रिया, गणेश भाई. मुझे खेद है कि कठिन शब्दों के प्रयोग के कारण, इस नज़्म को समझने में दिक्कत हुई. भविष्य में इसका ध्यान रखने का प्रयास करूँगा. फिलहाल के लिए, उर्दू के कठिन शब्दों के मायने लिख रहा हूँ.
शफ़क=सूर्यास्त की लालिमा, सहर=सुबह/प्रातःकाल, आब-ए-खुशामद=चापलूसी के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला जल, उफ़क=क्षितिज.
इसके लिए भी मैं अपनी कठिन भाषा को ही दोषी मानूंगा कि मेरी लिखी पंक्ति "डूबते को क्यूँ नहीं देता अर्घ्य कोई....", आपकी सहमति नहीं बटोर पाई. यहाँ 'डूबते को अर्घ्य देने' से मेरा आशय सूर्य के डूबने से नहीं, अपितु 'असफल व्यक्ति' से है. वो कहते हैं न कि "सफल व्यक्ति के सौ पिता होते हैं, परन्तु असफल व्यक्ति का कोई नहीं होता"

'ओइसे छठी के त्यौहार में डूबत सूरुज के अरग दियाला, इ हमरो के पता बा. आखिर हमनी के एकही नु जिला के हईं जा... :-D'

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 26, 2010 at 5:29pm
बहुत ही बढ़िया रचना, कठिन उर्दू शब्दों का प्रयोग थोड़ी रचना को समझने मे परेशानी उत्पन्न कर रही है, जहा तक समझ मे आई, अच्छी रचना लगी |
माँ समझाती थी-
"उगते सूरज को तो सभी अर्घ्य देते है.."
- डूबते को क्यूँ नहीं देता अर्घ्य कोई....

विवेक भाई मैं इन दो पक्तियों से सहमत नहीं हूँ, मैने एक भोजपुरी रचना लिखी है जो जल्द ही पोस्ट करूँगा ....उसकी चंद पक्तियां यहाँ लिखना श्रेयष्कर होगा..........
सगरी जहां मे जवन कही न होला,
होला U P बिहार मे ,
डूबत सूरुज के अरग(अर्ध्य) दियाला,
छठी के त्यौहार में,
Comment by विवेक मिश्र on October 23, 2010 at 8:49am
चतुर्वेदी सर & राणा भाई- आप लोगों को मेरा यह प्रयास पसंद आया, तो लिखना स्वयं में सार्थक सिद्ध हुआ.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on October 22, 2010 at 7:16pm
विवेक भाई,नए नए बिम्बों से सजी यह रचना पसंद आयी| बधाई हो|

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