Added by विवेक मिश्र on June 11, 2015 at 8:46pm — 10 Comments
Added by विवेक मिश्र on April 27, 2015 at 8:30am — 9 Comments
अरुण से ले प्रकाश तू
तिमिर की ओर मोड़ दे !
मना न शोक भूत का
है सामने यथार्थ जब
जगत ये कर्म पूजता
धनुष उठा ले पार्थ ! अब
सदैव लक्ष्य ध्यान रख
मगर समय का भान रख
तू साध मीन-दृग सदा
बचे जगत को छोड़ दे !
विजय मिले या हार हो
सदा हो मन में भाव सम
जला दे ज्ञान-दीप यूँ
मनस को छू सके न तम
भले ही सुख को साथ रख
दुखों के दिन भी याद रख
हृदय में स्वाभिमान हो
अहं को पर, झिंझोड़ दे !…
Added by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 4:00am — 17 Comments
Added by विवेक मिश्र on August 19, 2013 at 3:51pm — 10 Comments
दिलों को जोड़कर रखता रहा हूँ -
मैं कितनों के लिए पुल सा रहा हूँ -
मैं लम्हा हूँ, मगर सदियों पुरानी
किसी तारीख़ का हिस्सा रहा हूँ -
हजारों मस'अले हैं ज़िन्दगी में
मैं इक इक कर उन्हें सुलझा रहा हूँ-
ग़मे दौरां में ख़ुशियाँ ढूँढ़ना सीख
तुझे कबसे ऐ दिल! समझा रहा हूँ -
नहीं मुमकिन है मेरी वापसी अब
फ़क़त शतरंज का प्यादा रहा हूँ -
तुम्हारे नाम का इक फूल हर साल
क़िताबे दिल में, मैं रखता रहा हूँ -
किनारे…
Added by विवेक मिश्र on August 12, 2013 at 10:30pm — 20 Comments
Added by विवेक मिश्र on August 3, 2013 at 3:09pm — 26 Comments
एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है --
जाने कैसी मारा मारी रहती है --
एक ही दफ़्तर हैं, दोनों की शिफ्ट अलग
सूरज ढलते चाँद की बारी रहती है --
भाग नहीं सकते हम यूँ आसानी से
घर के बड़ों पर…
Added by विवेक मिश्र on March 15, 2013 at 8:00pm — 22 Comments
बहुत पहले 'दिल' और 'दिमाग' अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उनका उठना-बैठना, देखना-सुनना, सोचना-समझना और फैसले लेना, सब कुछ साथ-साथ होता था।
फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते…
Added by विवेक मिश्र on November 27, 2012 at 2:30am — 15 Comments
तिनका तिनका टूटा है-
दर्द किसी छप्पर सा है-
आँसू है इक बादल जो
सारी रात बरसता है-
सारी खुशियाँ रूठ गईं
ग़म फिर से मुस्काया है-
उम्मीदों का इक जुगनू
शब भर जलता बुझता है-
मंजिल बैठी…
Added by विवेक मिश्र on October 2, 2011 at 7:30am — 16 Comments
Added by विवेक मिश्र on January 12, 2011 at 4:30pm — 10 Comments
Added by विवेक मिश्र on November 9, 2010 at 12:23pm — 4 Comments
Added by विवेक मिश्र on October 21, 2010 at 1:00pm — 10 Comments
Added by विवेक मिश्र on August 17, 2010 at 1:30am — 7 Comments
Added by विवेक मिश्र on August 9, 2010 at 2:56am — 2 Comments
Added by विवेक मिश्र on July 9, 2010 at 3:30pm — 6 Comments
Added by विवेक मिश्र on April 13, 2010 at 9:55am — 7 Comments
Added by विवेक मिश्र on March 12, 2010 at 12:00am — 6 Comments
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