For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

विवेक मिश्र's Blog (17)

ग़ज़ल (विवेक मिश्र)

(बह्र - 1222-1222-1222-1222)





किसी दिन ख़त्म होगी डोर, धागा टूट जाएगा -

अचानक ज़िन्दगी! तुझसे भी नाता टूट जाएगा -



जो बोलूँ झूठ तो खुद की निगाहों में गिरूँगा मैं

जो सच कह दूँ तो फिर से एक रिश्ता टूट जाएगा -



बस इतनी बात ने ताउम्र हमको बाँधकर रक्खा

किसी के दिल में कायम इक भरोसा टूट जाएगा -



चराग़ों ने ये जो ज़िद की है अबकी आजमाने की

हवा का हौसला भी, देख लेना, टूट जाएगा -



वो हों जज़्बात या फिर कोई नद्दी हो कि दोनों… Continue

Added by विवेक मिश्र on June 11, 2015 at 8:46pm — 10 Comments

कवि की मृत्यु के बाद / गीत (विवेक मिश्र)

दूर कोई कवि मरा है



जो मुखर संवेदना थी

आज कोने जा लगी है

थक चुका आक्रोश है यूँ

मौन इसकी बानगी है



अब इन्हें स्वर कौन देगा?

भाग्य का ही आसरा है



अनगिनत सी भावनायें

बीजता रहता है यह मन

किन्तु विरले जानते हैं

भावनाओं पर नियंत्रण



कब किसे है छाँटना और

कौन सा पौधा हरा है?



लेखनी जर्जर पड़ी है

पृष्ठ रस्ता तक रहे हैं

भाव, शब्दों से कहें अब

'हम अकेले थक रहे हैं'



पूर्ण है 'मुख' गीत का,… Continue

Added by विवेक मिश्र on April 27, 2015 at 8:30am — 9 Comments

अरुण से ले प्रकाश तू / गीत (विवेक मिश्र)

अरुण से ले प्रकाश तू

तिमिर की ओर मोड़ दे !



मना न शोक भूत का

है सामने यथार्थ जब

जगत ये कर्म पूजता

धनुष उठा ले पार्थ ! अब

सदैव लक्ष्य ध्यान रख

मगर समय का भान रख

तू साध मीन-दृग सदा

बचे जगत को छोड़ दे !



विजय मिले या हार हो

सदा हो मन में भाव सम

जला दे ज्ञान-दीप यूँ

मनस को छू सके न तम

भले ही सुख को साथ रख

दुखों के दिन भी याद रख

हृदय में स्वाभिमान हो

अहं को पर, झिंझोड़ दे !…



Continue

Added by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 4:00am — 17 Comments

लघुकथा : सफ़र

सुबह-सुबह जब उसकी आँखें खुलीं, तो वह बड़े जोश में था. घरों की खिड़कियों से परदे हटाकर उसका ‘वार्म-वेलकम’ किया जा रहा था. और जब “सूर्यनमस्कार” और “अर्घ्य” जैसे टोटके शुरू हुए, तो वह फूले नहीं समा रहा था. सच में, दुनिया की ‘मॉर्निंग’, उसी की वज़ह से तो ‘गुड’ होती है. फिर क्या.. चढ़ गया गुरू चने की झाड़ पर.. अपनी पूरी ताक़त झोंककर रौशनी देने लगा, मानों सारी दुनिया में उजाला करने का ठेका उसने ही ले रखा हो. उसे याद ही नहीं रहा कि छटाँक भर उजाले की ख़ातिर भी उसे ख़ुद कितना जलना पड़ता है.. भूल गया कि… Continue

Added by विवेक मिश्र on August 19, 2013 at 3:51pm — 10 Comments

ग़ज़ल - मैं कितनों के लिए पुल सा रहा हूँ

दिलों को जोड़कर रखता रहा हूँ -

मैं कितनों के लिए पुल सा रहा हूँ -



मैं लम्हा हूँ, मगर सदियों पुरानी

किसी तारीख़ का हिस्सा रहा हूँ -



हजारों मस'अले हैं ज़िन्दगी में

मैं इक इक कर उन्हें सुलझा रहा हूँ-



ग़मे दौरां में ख़ुशियाँ ढूँढ़ना सीख

तुझे कबसे ऐ दिल! समझा रहा हूँ -



नहीं मुमकिन है मेरी वापसी अब

फ़क़त शतरंज का प्यादा रहा हूँ -



तुम्हारे नाम का इक फूल हर साल

क़िताबे दिल में, मैं रखता रहा हूँ -



किनारे…

Continue

Added by विवेक मिश्र on August 12, 2013 at 10:30pm — 20 Comments

नज़्म - सिगरेट सी ज़िन्दगी

उँगलियों के बीच फँसी

सिगरेट की तरह

कब से सुलग रही है ज़िन्दगी

सैकड़ों ख्वाब हैं,

कश-दर-कश, धुआँ बनकर

भीतर पहुँच रहे हैं..

ज्यादातर का तो

दम ही घुटने लगता हैं

और भाग जाते हैं लौटती साँसों के साथ ।

पर कुछेक हैं,

जो छूट गए हैं भीतर ही कहीं

पड़े हुए हैं चिपक कर, टिककर..

इन दिनों एक-एक कर मैं

उन्हीं ख़्वाबों को

मुकम्मल करने में लगा हूँ.



मिलूँगा फिर कभी

कि अभी ज़रा जल्दी में हूँ

मेरी सिगरेट ख़त्म होने को… Continue

Added by विवेक मिश्र on August 3, 2013 at 3:09pm — 26 Comments

ग़ज़ल - एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है

एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है --

जाने कैसी मारा मारी रहती है --

 

एक ही दफ़्तर हैं, दोनों की शिफ्ट अलग

सूरज ढलते चाँद की बारी रहती है --

 

भाग नहीं सकते हम यूँ आसानी से

घर के बड़ों पर…

Continue

Added by विवेक मिश्र on March 15, 2013 at 8:00pm — 22 Comments

लघुकथा- 'दिल' और 'दिमाग'

बहुत पहले 'दिल' और 'दिमाग' अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उनका उठना-बैठना, देखना-सुनना, सोचना-समझना और फैसले लेना, सब कुछ साथ-साथ होता था।

फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते…

Continue

Added by विवेक मिश्र on November 27, 2012 at 2:30am — 15 Comments

ग़ज़ल

 

 

तिनका तिनका टूटा है-

दर्द किसी छप्पर सा है-



आँसू है इक बादल जो

सारी रात बरसता है-




सारी खुशियाँ रूठ गईं


ग़म फिर से मुस्काया है-



उम्मीदों का इक जुगनू


शब भर जलता बुझता है-



मंजिल बैठी…

Continue

Added by विवेक मिश्र on October 2, 2011 at 7:30am — 16 Comments

-- ख्यालों की हदें --

ये जो मेरे ख्याल हैं न..

दरिया में तहलील बूंदों की माफिक…
Continue

Added by विवेक मिश्र on January 12, 2011 at 4:30pm — 10 Comments

पिघला था चाँद

शब-ए-अमावस को चिढ़ाने कल निकला था चाँद

काली चादर ओढ़कर भी कितना उजला था चाँद



खूब कोशिशों पर भी कुछ समेट ना पाया आसमाँ

सुबह होते ही बुलबुले सा फूटकर बिखरा था चाँद



दिखती है दरिया में कैद आज तलक परछाई

उस रोज़ कभी नहाते वक़्त जो फिसला था चाँद



क्या पता रंजिश थी या जमाने का कोई दस्तूर

रोज़ की तरह आज भी सूरज निगला था चाँद



दोनों जले थे रात भर अलाव भी और चाँद भी

तेरे लम्स के पश्मीने में भी… Continue

Added by विवेक मिश्र on November 9, 2010 at 12:23pm — 4 Comments

अर्घ्य

सांझ की पंचायत में..

शफ़क की चादर में लिपटा

और जमुहाई लेता सूरज,

गुस्से से लाल-पीला होता हुआ

दे रहा था उलाहना...



'मुई शब..!

बिन बताये ही भाग जाती है..'

'सहर भी, एकदम दबे पांव

सिरहाने आकर बैठ जाती है..'



'और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह

चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर

उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?"



उफक ने डांट लगाई-

'ज्यादा चिल्ला मत..

तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'



माँ समझाती थी-

"उगते…

Added by विवेक मिश्र on October 21, 2010 at 1:00pm — 10 Comments

..तुम्हारा साया था..

अपने दिल को तब धड़कते पाया था

गो कि तुम नहीं... तुम्हारा साया था --



तुम अय्यार थे जो संभल गए जल्दी

मैं अब तलक तुम्हे भूल ना पाया था --



जुल्फों की तारीकियों में गुज़रे वो लम्हे

औ कल तुम दिखीं, जब जूड़ा बनाया था --



बहुत सिकुड़ी शब-ए-वस्ल इन बाहों में

जो हुई सहर तो कोई सपना पराया था --



तेरे दर से लौटा तो फ़कीर सा खुश था मैं

नाउम्मीदियों का पोटला भी भर आया था --



लो अश्क बन गए अब दोस्त मिरे 'ताहिर'

ख़याल-ए-इश्क जो… Continue

Added by विवेक मिश्र on August 17, 2010 at 1:30am — 7 Comments

हाइकु क्या है..??

हाइकु - ये जापानी काव्य प्रकार है । हाइकु अकसर कुदरत वर्णन के लिए लिखे गए हैं । जिसे " कीगो " कहते हैं । जापानी हाइकु , एक पंक्ति में लिखा जाता है और १९ वीं शताब्दी पूर्व इसे हिक्को कहा जाता था । मासाओका शिकी महोदय ने १९ वीं सदी के अंत तक इसे हाइकु नाम दिया ।



हाइकु , कविता में ३ पंक्तियाँ होतीं हैं । जिनका अनुपात है--



प्रथम पंक्ति में ५ अक्षर , दूसरी में ७ अक्षर और फ़िर तीसरी पंक्ति में ५ अक्षर हों..



अकसर , संधि अक्षर भी एक अक्षर ही गिना जाता है… Continue

Added by विवेक मिश्र on August 9, 2010 at 2:56am — 2 Comments

ग़ज़ल-४

ज़िन्दगी जो भी तेरे अहकाम रहे

..वो सब के सब मिरे मुक़ाम रहे |



अय्यार कम नहीं हर बशर-ए-मौजूदा

पर तेरी जिद के आगे सब नाकाम रहे |



हर रास्ता खत्म था इक दोराहे पर..

क्या कहें किस तलातुम बेआराम रहे |



रंग-ए-खूं की खबर हर सम्त थी फैली

हम फिर भी गफ़लत में सुबहोशाम रहे |



इक मौत ही है जो बेख़ौफ़ तुझसे

वरना जो लड़े गुजरे अय्याम रहे |



हर शख्स ख्वाहिशमंद है केवल इतना

कुछ न हो बस वो चर्चा-ए-आम रहे |



सतर ना छुप सकेगी… Continue

Added by विवेक मिश्र on July 9, 2010 at 3:30pm — 6 Comments

लोग...

ऐसे लोग.. वैसे लोग..

मिरे जैसे नहीं होते अब,

मिरे चेहरे जैसे लोग..

किताबों में ढूढ़ते..

गुजरते वक़्त को,

कब के गुजर गए;

गुजरे वक़्त जैसे लोग..

ये काबा तेरा;

ये शिवाला मेरा,

नींदों में कंधा बाँटते..

ये सरहदों जैसे लोग..

मंदिर की चौखट पे;

होती थी बैठकबाजी,

जाने कब मुसलमाँ बने;

ये मज़हबों जैसे लोग..

अजमत-ए-खुदा थी;

जो रंग-ए-सुर्ख दिया,

कल ज़मीन से निकलते;

नीले-पीले से लोग..

लिखता हूँ नज़्म;

बन जाती है… Continue

Added by विवेक मिश्र on April 13, 2010 at 9:55am — 7 Comments

गरीबी..

इक कमरे का है ये मकाँ...


यहाँ आदमियों की जगह नहीं,


खाने को दो दिनों की भूख है


पीने को रिस-रिसकर बहता पानी


बेरंग सी दीवारों की मुन्तज़िरी,


औ छत की रोती सी दीवारें


गोशों में…
Continue

Added by विवेक मिश्र on March 12, 2010 at 12:00am — 6 Comments

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

anwar suhail updated their profile
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
Friday
ajay sharma shared a profile on Facebook
Thursday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Dec 1
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब।‌ रचना पटल पर समय देकर रचना के मर्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक…"
Nov 30
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी लघु कथा हम भारतीयों की विदेश में रहने वालों के प्रति जो…"
Nov 30
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मनन कुमार जी, आपने इतनी संक्षेप में बात को प्रसतुत कर सारी कहानी बता दी। इसे कहते हे बात…"
Nov 30
AMAN SINHA and रौशन जसवाल विक्षिप्‍त are now friends
Nov 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service