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ग़ज़ल - एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है

एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है --

जाने कैसी मारा मारी रहती है --

 

एक ही दफ़्तर हैं, दोनों की शिफ्ट अलग
सूरज ढलते चाँद की बारी रहती है --

 

भाग नहीं सकते हम यूँ आसानी से
घर के बड़ों पर ज़िम्मेदारी रहती है --

 

इक ख्वाहिश की ख़ातिर ख़ुद को बेचा था
अब भी शर्मिन्दा ख़ुद्दारी रहती है --

 

साहब जी नारीवादी तो हैं, लेकिन
साहब के घर अबला नारी रहती है --

हम भी गुजरे थे इक दौरे लज़्जत से
'इश्क़' नाम की जब बीमारी रहती है --

 

उस पगली का तकिया भी भीगा होगा
अपनी तबियत भी कुछ भारी रहती है --

चादर ताने सोती है सारी दुनिया
मालिक ! तेरी पहरेदारी रहती है -- --

साहब जी नारीवादी तो हैं, लेकिन

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Comment by Savitri Rathore on April 7, 2013 at 12:18am

एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है --

जाने कैसी मारा मारी रहती है --

 विवेक मिश्र  जी अत्यंत समसामयिक रचना .....सुन्दर प्रस्तुति !

 

Comment by विवेक मिश्र on April 6, 2013 at 8:03pm

बहुत शुक्रिया, आशीष नैथानी 'सलिल' जी एवं राजीव कुमार झा जी.

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 31, 2013 at 11:00pm

एक ही दफ़्तर हैं, दोनों की शिफ्ट अलग
सूरज ढलते चाँद की बारी रहती है --

वाह वाह !!! क्या गजब के अशआर हुए हैं ।

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 31, 2013 at 12:17pm

बहुत सुन्दर गज़ल ,विवेक जी .

हम भी गुजरे थे इक दौरे लज़्जत से 'इश्क़' नाम की जब बीमारी रहती है

बहुत सुन्दर .

Comment by विवेक मिश्र on March 25, 2013 at 6:18pm

हार्दिक आभार बृजेश जी.

Comment by बृजेश नीरज on March 25, 2013 at 11:36am

भई वाह! क्या लिखा है आपने! बधाई स्वीकारें।

Comment by विवेक मिश्र on March 22, 2013 at 4:27pm

धन्यवाद सज्जन जी.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2013 at 12:16am

अच्छी ग़ज़ल हुई है ताहिर साहब, दाद कुबूल कीजिए।

Comment by विवेक मिश्र on March 19, 2013 at 9:13pm

एडमिन महोदय से अनुरोध है कि कृपया "// साहब जी नारीवादी हैं, लेकिन //" वाले मिसरे को परिवर्तित करके "// साहब जी नारीवादी तो हैं, लेकिन //" कर दें.

अग्रिम आभार के साथ
विवेक मिश्र

Comment by विवेक मिश्र on March 19, 2013 at 9:09pm

@ वीनस जी - ध्यान दिलाने के शुक्रिया बन्धु.

कृपया ध्यान दे...

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