For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सुबह-सुबह जब उसकी आँखें खुलीं, तो वह बड़े जोश में था. घरों की खिड़कियों से परदे हटाकर उसका ‘वार्म-वेलकम’ किया जा रहा था. और जब “सूर्यनमस्कार” और “अर्घ्य” जैसे टोटके शुरू हुए, तो वह फूले नहीं समा रहा था. सच में, दुनिया की ‘मॉर्निंग’, उसी की वज़ह से तो ‘गुड’ होती है. फिर क्या.. चढ़ गया गुरू चने की झाड़ पर.. अपनी पूरी ताक़त झोंककर रौशनी देने लगा, मानों सारी दुनिया में उजाला करने का ठेका उसने ही ले रखा हो. उसे याद ही नहीं रहा कि छटाँक भर उजाले की ख़ातिर भी उसे ख़ुद कितना जलना पड़ता है.. भूल गया कि अन्दर ही अन्दर वह खोखला हुआ जा रहा है. और पब्लिक का क्या.. दोपहर तक अपने शेड्यूल में बिजी हो गई. उसे लगा कि अभी शायद, सब अपने-अपने जरूरी कामों में बिजी हैं और शाम तक तो उसकी जरूरत फिर से पड़ेगी ही.
शाम हुई. दूर कहीं एक टिमटिमाती सी रोशनी दिखाई पड़ी और धीरे-धीरे पूरा शहर बल्बों की दूधिया रौशनी से जगमग हो उठा. अब लोगों की बातों में ‘चाँद-तारों’ का ज़िक्र था. ख़ुद को इस क़दर नज़र-अंदाज होता देखकर उसे बहुत मायूसी हुई. सुबह से ड्यूटी करते-करते उसका चेहरा एकदम कुम्हला सा गया था. आख़िरकार, दुनिया से ऊबकर उसने समंदर में छलाँग लगा दी.
और अपने घर की बालकनी में खड़े-खड़े, उस डूबते ‘सूरज’ को देखते हुए, वो मिसरा जो कुछ रोज़ पहले ही कहीं पढ़ा था, मेरे ज़हन में गूँज उठा –
“धीरे-धीरे ढलते सूरज सा सफ़र मेरा भी है..”


(मौलिक एवं अप्रकाशित)


(लघुकथा में प्रयुक्त मिसरे के लिए भाई स्वप्निल तिवारी 'आतिश' जी से अनुमोदन प्राप्त है।)

Views: 633

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2013 at 8:43pm

एगझास्ट आप किसी का बनिये, प्रदत्त सुझावों को तो न उडा दीजिये.... :-))))

आप यहाँ साझा किये गये सुझावों को सुनें, उनपर अमल करें और तब ही प्रस्तुतियों को बाहर की दुनिया में साझा करें.. तो ही इस मंच की गरिमा बनी रहेगी. अन्यथा वाह-वाह की ज़बर्दस्त हुआँ-हुआँ तो है ही बाहर में, चढ़ाने के लिए. . :-))
वैसे मुझे मालूम है कि आप झाड़ देख कर चढ़ते हैं .. हा हा हा हा...

लघुकथा का गठन बहुत अच्छा है. बधाई स्वीकारें, विवेकभाई.

अपने पूर्ववर्ती पाठकों की सुर में सुर मिला कर मैं भी खयाल गा रहा हूँ, इस विश्वास से कि इसका ये टुकड़ा पसंद आया होगा.

इस लघुकथा पर पुनः बधाई

Comment by विवेक मिश्र on August 21, 2013 at 12:15pm
शुभ्रांशु जी - कथा में निहित मर्म को समझने के लिए आपका आभारी हूँ। सुधार के लिए प्रयत्नशील हूँ। आप गुनीजनों से सतत मार्गदर्शन की अपेक्षा है।
स्वप्निल जी के बारे में कुछ कहना मेरे बस की नहीं, सिवाय इसके कि मैंने अभी तक उनका एक भी शे'र कमजोर नहीं देखा। उनकी नज़्मों का भी यही हाल है। मेरे एक 'प्रिय मित्र' की मानें तो मैं उनका 'फैन' नहीं, 'एग्जॉस्ट' हूँ। :-)
Comment by Shubhranshu Pandey on August 21, 2013 at 11:35am

भाई साहब बहुत सुन्दर बिम्ब लिया है..........

लोगों को जरुरत के साथ बदलते हुये देखते रहना...शायद अपने आप को प्रारम्भ से ही लाते तो अन्त की लाइन बेकार नहीं जाती...

महानगर का एक बुजुर्ग दसवें माले से शायद इसी घटना को अपनी पनियाइ आँखों से हमेशा देखता होगा.इस इन्तजार के साथ कि कभी तो औरों की नजर में उसके क्षरण का मान होगा.....

सादर...

अभी कल की ही बात है जब स्वप्निल जी के साथ एक गोष्ठी का आनन्द ले रहा था....मजा आ गया था उनके कलामों पर वाह....

Comment by विवेक मिश्र on August 21, 2013 at 11:22am
भाई बाग़ी जी और वीनस जी - लघुकथा का एक हिस्सा भी आप लोगों को पसन्द आना, मेरी प्रसन्नता के लिए पर्याप्त कारण है। इसके लिए हृदय से आभारी हूँ।
अतिरिक्त/भर्ती के पैराग्राफ के विषय में मेरा यह कहना है कि लघुकथा के पहला हिस्से में एक दृश्य-चित्र उकेरा गया है, जिसके मुख्य-पात्र को भरसक 'अज्ञात' रखने की कोशिश की गई है और अंतिम पैरा में उस मुख्य पात्र (सूरज) को उजागर करते हुए, उसके परिप्रेक्ष्य या सन्दर्भ को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
तथापि मैं अपने लेखन में कमी स्वीकारते हुए आगे सुधार करने हेतु आपको आश्वस्त करता हूँ। स्नेह बनाए रखें।
Comment by वीनस केसरी on August 21, 2013 at 9:50am

क्या कहने भाई ... बिम्ब बाँधा और निभा ले गए .. अंत बहुत शानदार हुआ है सुबह के जोश और शाम के ऊबने ने शानदार कांट्रास्ट पैदा कर दिया है

// आख़िरकार, दुनिया से ऊबकर उसने समंदर में छलाँग लगा दी.//

मगर कथा यहीं समाप्त हो जाती है .. आगे जो है भर्ती का है ... गणेश भाई से पूरी तरह सहमत हूँ


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 21, 2013 at 9:08am

भाई विवेक जी, प्रस्तुत लघुकथा बहुत ही सामयिक हुई है, सूरज को प्रतिक बना आपने बहुत बड़ी बात कही है, लघु कथा में लिखी बातों से महत्वपूर्ण अलिखि बातें हो जाया करती हैं । 
इस विधा के उस्ताद कहते हैं कि लघुकथा में कोई अतिरिक्त शब्द नहीं होने चाहियें किन्तु भाई आपने तो एक पैरा निरर्थक जोड़ रखा है, जरा अंतिम पैरा ///और अपने घर की बालकनी में खड़े-खड़े, उस डूबते ‘सूरज’ को देखते हुए, वो मिसरा जो कुछ रोज़ पहले ही कहीं पढ़ा था, मेरे ज़हन में गूँज उठा –
“धीरे-धीरे ढलते सूरज सा सफ़र मेरा भी है..”///

हटा कर देखिए, क्या कोई अंतर पड़ रहा है ? अलबत्ता लघुकथा का सौन्दर्य निखर कर आ रहा है |
इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई |

Comment by विवेक मिश्र on August 20, 2013 at 9:18pm
राम शिरोमणि पाठक जी, जितेन्द्र 'गीत' जी एवं अविनाश बागडे जी - आप सभी का हार्दिक आभार।
Comment by AVINASH S BAGDE on August 20, 2013 at 6:35pm

umda laghu katha ...

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 20, 2013 at 2:35pm

bhavnatmk laghukatha pr hardik badhai, aadrniy vivek ji

Comment by ram shiromani pathak on August 20, 2013 at 2:00pm

आदरणीय सुन्दर प्रस्तुति   //हार्दिक बधाई आपको 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हमको नगर में गाँव खुला याद आ गयामानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।*तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया…"
53 minutes ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221    2121    1221    212    किस को बताऊँ दोस्त  मैं…"
1 hour ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
7 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
8 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
18 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
Thursday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ओबीओ के मंच से सम्बद्ध सभी सदस्यों को दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ  छंदोत्सव के अंक 172 में…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी ! समय के साथ त्यौहारों के मनाने का तरीका बदलता गया है. प्रस्तुत सरसी…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service