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एगझास्ट आप किसी का बनिये, प्रदत्त सुझावों को तो न उडा दीजिये.... :-))))
आप यहाँ साझा किये गये सुझावों को सुनें, उनपर अमल करें और तब ही प्रस्तुतियों को बाहर की दुनिया में साझा करें.. तो ही इस मंच की गरिमा बनी रहेगी. अन्यथा वाह-वाह की ज़बर्दस्त हुआँ-हुआँ तो है ही बाहर में, चढ़ाने के लिए. . :-))
वैसे मुझे मालूम है कि आप झाड़ देख कर चढ़ते हैं .. हा हा हा हा...
लघुकथा का गठन बहुत अच्छा है. बधाई स्वीकारें, विवेकभाई.
अपने पूर्ववर्ती पाठकों की सुर में सुर मिला कर मैं भी खयाल गा रहा हूँ, इस विश्वास से कि इसका ये टुकड़ा पसंद आया होगा.
इस लघुकथा पर पुनः बधाई
भाई साहब बहुत सुन्दर बिम्ब लिया है..........
लोगों को जरुरत के साथ बदलते हुये देखते रहना...शायद अपने आप को प्रारम्भ से ही लाते तो अन्त की लाइन बेकार नहीं जाती...
महानगर का एक बुजुर्ग दसवें माले से शायद इसी घटना को अपनी पनियाइ आँखों से हमेशा देखता होगा.इस इन्तजार के साथ कि कभी तो औरों की नजर में उसके क्षरण का मान होगा.....
सादर...
अभी कल की ही बात है जब स्वप्निल जी के साथ एक गोष्ठी का आनन्द ले रहा था....मजा आ गया था उनके कलामों पर वाह....
क्या कहने भाई ... बिम्ब बाँधा और निभा ले गए .. अंत बहुत शानदार हुआ है सुबह के जोश और शाम के ऊबने ने शानदार कांट्रास्ट पैदा कर दिया है
// आख़िरकार, दुनिया से ऊबकर उसने समंदर में छलाँग लगा दी.//
मगर कथा यहीं समाप्त हो जाती है .. आगे जो है भर्ती का है ... गणेश भाई से पूरी तरह सहमत हूँ
भाई विवेक जी, प्रस्तुत लघुकथा बहुत ही सामयिक हुई है, सूरज को प्रतिक बना आपने बहुत बड़ी बात कही है, लघु कथा में लिखी बातों से महत्वपूर्ण अलिखि बातें हो जाया करती हैं ।
इस विधा के उस्ताद कहते हैं कि लघुकथा में कोई अतिरिक्त शब्द नहीं होने चाहियें किन्तु भाई आपने तो एक पैरा निरर्थक जोड़ रखा है, जरा अंतिम पैरा ///और अपने घर की बालकनी में खड़े-खड़े, उस डूबते ‘सूरज’ को देखते हुए, वो मिसरा जो कुछ रोज़ पहले ही कहीं पढ़ा था, मेरे ज़हन में गूँज उठा –
“धीरे-धीरे ढलते सूरज सा सफ़र मेरा भी है..”///
हटा कर देखिए, क्या कोई अंतर पड़ रहा है ? अलबत्ता लघुकथा का सौन्दर्य निखर कर आ रहा है |
इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई |
umda laghu katha ...
bhavnatmk laghukatha pr hardik badhai, aadrniy vivek ji
आदरणीय सुन्दर प्रस्तुति //हार्दिक बधाई आपको
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