शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश चीखें
मैंने माना कोई नहीं अपना
तोड़ डाला है आज हर सपना
रखे गैरत मिला है क्या मुझको
सोच में इसकी भला क्यूँ खपना
सुन लूँ बिसरी हुई सी ऊँघती बेहोश चीखें
शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश चीखें
कोई आइना उठा लाया है
मुझको फिर याद कुछ दिलाया है
कभी चेहरा ये चाँद लगता था
आज लेकिन वही मुरझाया है
बदलता वक़्त और दर्द की आगोश चीखें
शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश चीखें
कभी पायल की सुनी है रुनझुन
कभी कंगन से हुई वो खनखन
आज सुनता हूँ मैं सन्नाटों को
मेरी उनसे हुई थी जो अनबन
टपकती मौन आँखों से उड़ा दें होश चीखें
शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश चीखें
आदमी आदमीयत भूला है
रिवाजो रस्म नीयत भूला है
वो है आमादा जान लेने को
कौम की वो बसीयत भूला है
दरिंदों में तो भर रही हैं देखो जोश चीखें
शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश चीखें
संदीप पटेल "दीप"
Comment
आदरणीय अनंत भाई जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका रचना की सरहना कर उत्साह बढाने हेतु
आदरणीय संदीप भाई बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति हार्दिक बधाई स्वीकारें
आदरणीय वीनस सर जी सादर प्रणाम
उत्साहवर्धन करने के लिए हृदय से धन्यवाद और सादर आभार
ये नया प्रयास किया था शायद कुछ जमा नहीं गुरुजनों को सो प्रतिक्रिया नहीं दी
किन्तु प्रयास करता रहूँगा ...............स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
नवगीत फार्मेट की ओर कदम बढाता सुन्दर प्रयास
कई कई बिम्ब अच्छे बन पड़े हैं
बधाई
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