प्रिय सुनो तुम्हारी भूल नहीं
अवसाद नहीं रखना मन में
यह मौसम ही अनुकूल नहीं
चुप चुप रहना कुछ न कहना कैसे होगा
जब चीख रहीं होगीं लाखों जिज्ञासाएं
क्यूँ है? कैसे है? और रहेगा कब तक यूँ ?
बस बुरे ख्यालों के बादल घिर घिर छाएँ
अब ऐसा भी तो नहीं
के मेरे दिल में चुभता शूल नहीं
मैं कहीं रहूँ इस दुनिया में रहता तो हूँ
पर सच कहता हूँ मन का रहता ध्यान वहीँ
क्या हुई भूल आखिर क्या ऐसा बोल दिया
करता रहता…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on December 29, 2017 at 6:17pm — 3 Comments
आज यों निर्लज्जता सरिता सी बहती जा रही है
द्वेष इर्षा और घृणा ले साथ बढती जा रही है
बिन परों के आसमाँ की सैर के सपने संजोते
पा रहे पंछी नए आयाम सब कुछ खोते खोते
लालसा भी कोयले पर स्वर्ण मढ़ती जा रही है
दिन गए वो खेल के जब खेलते थे सोते सोते
अब गुजरता है लडकपन पुस्तकों का बोझ ढोते
दौड़ है बस होड़ की जो क्या क्या गढ़ती जा रही है
काश के पंछी ही होते लौट आते शाम होते
कोसते भगवान् को…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on July 28, 2014 at 1:00am — 3 Comments
चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
देख हताशा की मिट्टी मन में लिपटी है
स्वार्थ सिद्धि में लिप्त भावना भी सिमटी है
ले आओ तूफान के मिट्टी ये उड़ जाए
मन का दिव्य प्रकाश देख तम भी घबराए
कब तक अनुमानों के दुनिया मे खोएगा
चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
स्वाभिमान खो गया तुम्हारा क्यूँ ये बोलो
तनमन से नंगे होकर तुम जग भर डोलो
संस्कार मर्यादाओं का भान नहीं है
यकीं मुझे आया के तू इंसान नहीं है
जन्म…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 15, 2013 at 8:45pm — 4 Comments
हजज मुरब्बा सालिम
१२२२/१२२२
हूँ प्यासा इक महीने से
मुझे रोको न पीने से
पिला साकी सदा आई
शराबी के दफीने से
पिला बेहोश होने तक
हटे कुछ बोझ सीने से
न लाना होश में यारो
नहीं अब रब्त जीने से
उतर जाने दो रग रग में
उड़े खुशबू पसीने से
जिसे हो डूबने का डर
रखे दूरी सफीने से
हुनर आता है जीने का
है क्या लेना करीने से
गिरा न अश्क उल्फत में
ये…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 15, 2013 at 11:30am — 14 Comments
पहले थे हम इक हकीकत अब कहानी हो गए
जब से अपने ख्वाब यारो आसमानी हो गए
पांच सालों में महल सा अपने घर को कर लिया
चोर डाकू करके मेहनत खानदानी हो गए
तुम जियो खुश जिन्दगी भर ऐसा उसने जब कहा
एक सिक्का था उछाला हम भी दानी हो गए
यूँ हमारी हर ग़ज़ल खुशबू हुई औ सर चढ़ी
देखते देखते हम जाफरानी हो गए
“दीप” गम के पर्वतों को तुमने क्या पिघला दिया
गर्दिशों की कौम के सब पानी पानी हो गए
संदीप…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on December 6, 2013 at 2:00pm — 21 Comments
आँखों से बहता लहू
लाल लाल धधकती ज्वालायें
कृष्ण केशों सी काली लालसाएँ
ह्रदय की कुंठा
असहनीय वेदना
दर्दनाक कान के परदे फाड़ती
चीखें
लपलपाती तृष्णा
तिलमिलाती भूख
अपाहिज प्रयास
इच्छाओं के ज्वार भाटे
आश्वासन की आकाशगंगा
विश्वासघाती उल्कापिंड
हवस से भरे भँवरे
शंकाओं से ग्रसित पुष्प
उपेक्षाओं के शिकार कांटे
हाहाकार चीत्कार ठहाके
विदीर्ण तन
लतपथ , लहूलुहान…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on December 5, 2013 at 11:23am — 14 Comments
रस्म वाले देश की औलाद हैं हम
आज के बच्चे कहें सैयाद हैं हम
उनकी बीबी मायके जब से गयी है
कहते फिरते आजकल आज़ाद हैं हम
ढँक गए हैं गर्द से तो भूलिए मत
इस महल की रीढ़ हैं बुनियाद हैं हम
छोड़ के वो हाथ मेरा जो चले थे
गमजदा हैं देख ये आबाद हैं हम
"दीप" हरदम की मदद है दूसरों की
इसलिए तो आज भी बर्बाद हैं हम
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 1, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
मौन हवाएं
सर्द गर्म और सीली सीली
आते जाते
आम जनों की
तबियत ढीली
सन्नाटों की चीख
अनवरत अनुशासित है
लेन देन की बात करे हैं
सारे उल्लू
चन्दा का उजियारा
ढूँढे
जल भर चुल्लू
भूतों और पिशाचों से
बस ये शासित है
दहशत वहशत
खुली सड़क पर
खुल के झूमें
डाकू और लुटेरे
क्षण क्षण
दामन चूमें
शबनम का कतरा
त्रण त्रण में आभासित…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on December 1, 2013 at 8:00pm — 13 Comments
किसी सोच में कभी डूब के जो लिखा न हो औ कहा न हो
वो ग़ज़ल है क्या और वो गीत क्या किसी दिल को जिसने छुआ न हो
मेरी शाईरी में है जो निहाँ मेरे हर्फ़ में वो रवाँ रवाँ
मेरी है दुआ उसी रब से के कहूँ जब मैं कोई खफा न हो
ज़रा पूछिए किसी आदमी से छुआ है कैसे ये आसमाँ
क्या सफ़र में फर्श से अर्श के कोई है वो जो कि गिरा न हो
कहे माँ कहीं मिलें गर्दिशें तो खुदा दिखाता है रास्ता
इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग ले के खडा न…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 30, 2013 at 4:00pm — 20 Comments
बात सच जो लबे खुद्दार में आ जाती है
मैं ये सोचे हूँ क्यूँ बेकार में आ जाती है
सारा दिन खेलती है साथ में बच्चों के जो
उनके सोते ही वो बाज़ार में आ जाती है
हर दफा सुन के चुनावी औ सियासी बातें
याँ चमक सूरते बीमार में आ जाती है
गालियाँ भीड़ को दे यार से भी लड़ मर ले
कैसे हिम्मत किसी मैख्वार में आ जाती है
रोते चेहरों को हँसाना ही जिन्हें है भाता
रूह उन जैसी भी संसार में आ जाती…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 26, 2013 at 11:56am — 17 Comments
रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब
माँ बाप भाई भाई में बँटने लगे हैं अब
लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ
सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब
वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए
यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब
बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें
याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब
नेताओं की सुहबत का असर उनपे देखिये
देकर जबान वो भी पलटने लगे हैं अब
मशरूफ “दीप” सब हैं क्या…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 24, 2013 at 9:07pm — 13 Comments
वो अपने यार को छलने के बाद आते हैं
दिलों में दर्द उभरने के बाद आते हैं
चमकते चाँद सितारे गगन में लगता है
विरह की आग में जलने के बाद आते हैं
न कोई देख ले चेहरे की झुर्रियां यारों
तभी वो खूब सँवरने के बाद आते हैं
हमारे दर्द भी करते हैं नौकरी शायद
हमेशा शाम के ढलने के बाद आते हैं
तुम्हारी याद के जुगनू भी बेबफा तुम से
तमाम रात गुजरने के बाद आते हैं…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 22, 2013 at 1:30pm — 31 Comments
झूठ जीता सत्य हारा
राजनीति की अग्नि में
जले देश सारा
रिश्ते नाते स्वार्थ-सिद्धि की धुरी में
समय मजदूरों का गुजरे नौकरी में
श्रम किया जी तोड़
किन्तु फल है खारा
मन लगा के पर हुआ जाता गगन सा
लक्ष्य के आगे हैं किन्तु तम गहन सा
सिन्धु की गहराई
जाने बस किनारा
घात की यह वेदना क्यूँ माँ सहे अब
ज्ञान की नदिया भी क्यूँ उल्टी बहे अब
मिट गयी अब नेह की
वो मूल धारा…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 20, 2013 at 10:30pm — 5 Comments
दिव्य अलोकिक सी
उतर रही
क्षितज से
नीचे की ओर
त्रण से छीन लेती है
ओस का प्याला
और वह
अवाक
मूक मुँह बाए
देखता है
उस देवी को जो
मद-मस्त हो जाती है
कलि कलि मुस्काती है
पुष्प खिल उठते हैं
बागों के
पोखरों के
ह्रदय के
उसके दर्शन पा
भर लेती है वो
अपनी बाहों में
अलसाए से
विहंगों को
प्रकृति के कण कण को
और देती है…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 20, 2013 at 4:32pm — 12 Comments
ज्ञान का चहुँ ओर यों प्रकाश होना चाहिए
मन में पसरे घोर तम का नाश होना चाहिए
बढ़ रही तकनीक क्रांति ला रहे उद्योग अब
तब तो मेरे गाँव का विकाश होना चाहिए
देखता है स्वप्न सोते जागते दिन रात मन
बाँधने मनगति को तप का पाश होना चाहिए
जीतने का हर समय प्रयास करना है उचित
हार कर हमको नहीं निराश होना चाहिए
घर के भीतर “दीप” जलना सिद्ध होता है सही
आपका भगवान् से निकाश होना चाहिए
निकाश -…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 19, 2013 at 8:35pm — 13 Comments
देख सियासतदानों ने सत्ता पाकर क्या काम किया
कच्ची सड़कें खुद बनवाकर अभियंता बदनाम किया
इल्म नया दे रस्म रिवाज अदब का काम तमाम किया
मगरीबी तहजीबें अपनाकर फिर मुल्क गुलाम किया
देख बुढापा मात पिता का सोचे कब रुखसत होंगे
बेटे ने तब पहले उनकी दौलत अपने नाम किया
सुख सुविधाएँ अक्सर ही पैदा करती सुकुमारों को
तंगी की हालत थी जिसने पैदा एक कलाम किया
वीराना था ये घर मेरा तेरे आने से पहले
दीप जलाकर प्रेम का…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 17, 2013 at 2:13pm — 17 Comments
गमजदा लोग ये ऐसा कमाल कर देंगे
इतना रोयेंगे के हँसना मुहाल कर देंगे
झूठ कहने में उन्हें इस कदर महारत है
के सजर को भी वो तो नौ निहाल कर देंगे
कैसे हैं आज के बच्चे कहें भी क्या उनको
इक जबाब आता नहीं सौ सवाल कर देंगे
है यकीं अपनी मुहब्बत पे इस कदर उनको
इश्क जब होगा सनम को जमाल कर देंगे
हैं हम आजाद हवा इन्कलाब लाने को
"दीप" को एक सुलगती मशाल कर देंगे
संदीप कुमार पटेल…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on November 11, 2013 at 2:30pm — 11 Comments
जहाँ पर्वत पिघल रहा होगा
चरागे इश्क जल रहा होगा
परिंदे लौटने लगे घर को
चढ़ा सूरज जो ढल रहा होगा
बना है आदमी क्यूँ घोड़ा ये
कोई बच्चा मचल रहा होगा
गलितयों से जो दोस्ती कर ले
वो अपने हाथ मल रहा होगा
नयन हैं तिश्नगी भरे उसके
कोई तो ख्वाब पल रहा होगा
भरे है दर्द वो मगर न कहे
उसे अपना ही छल रहा होगा
छतों पे भीड़ औरतों की है
भई चंदा निकल रहा होगा
जले जो दीप आँधियों में भी
वो गर्दिशों को खल…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 22, 2013 at 12:27pm — 23 Comments
मेरे अपने उधारी दे के ऋण को छोड़ देते हैं
मगर फिर नास्ते का दाम उसमें जोड़ देते हैं
चलाते योजना अक्सर वो अपने जेब भरने को
सियासी हैं बड़े नदियों का रुख भी मोड़ देते हैं
जो हैं कमजोर दुनिया में करें वो ज्ञान की बातें
बहादुर हैं जो हाँ करवाने सर ही फोड़ देते हैं
करे हैं जोंक सी यारी लिपट के यार मतलब से
निकल जाता है जब मतलब वो यारी तोड़ देते हैं
हवाएं जब करें साजिश चटक जाते हैं तब फानूश
तमस से जंग…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on October 19, 2013 at 3:30pm — 10 Comments
मैं शाम
ढलने का इंतज़ार करता हूँ
सूरज !!!
जिसकी तपिश से
घबराया सा
झुलसा सा
मुरझाया सा
खींच लेना चाहता हूँ
रात की विशाल
छायादार चादर
जिसमें जड़े हैं
चाँद तारे
और बिखरे से
सफ़ेद रुई के फोहों से
मखमली दूधिया बादल
थकान मिटाने
को होता है
सन्नाटों का गीत
.........................................
सन्नाटों का गीत
अद्भुत है अद्वितीय है
इसकी लय…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on October 8, 2013 at 1:30pm — 14 Comments
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