रस्म वाले देश की औलाद हैं हम
आज के बच्चे कहें सैयाद हैं हम
उनकी बीबी मायके जब से गयी है
कहते फिरते आजकल आज़ाद हैं हम
ढँक गए हैं गर्द से तो भूलिए मत
इस महल की रीढ़ हैं बुनियाद हैं हम
छोड़ के वो हाथ मेरा जो चले थे
गमजदा हैं देख ये आबाद हैं हम
"दीप" हरदम की मदद है दूसरों की
इसलिए तो आज भी बर्बाद हैं हम
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बढिया.. !
शेर दर शेर कहन हामी लेता हुआ है. बधाई ! बधाई !!
ग़ज़ल के अश’आर के बीच में ही पुछल्ला भी आ गया है .. . :-))))शुभ-शुभ
"
ढँक गए हैं गर्द से तो भूलिए मत
इस महल की रीढ़ हैं बुनियाद हैं हम
दीप" हरदम की मदद है दूसरों की
इसलिए तो आज भी बर्बाद हैं हम....बेहतरीन ग़ज़ल के ये शेर मुझे बेहद पसंद आये ..सब कंगूरे की ईंट बनना चाहते है लेकिन नीव अगर हिल जाए तो सबको समझ में आ जाईगी ......सच है लोगों के सुख दुःख में खड़े होकर हम आज की तथाकथित सफलता से कोसों दूर हो गए ....लाजबाब ग़ज़ल ..ढेरों बधाई
आदरणीय संदीप जी बेहतरीन ग़ज़ल है गंभीर अशआर के बीच एक मज़ाकिया शेर भी गुदगुदा गया बधाई स्वीकार करें
अच्छी गज़ल हुई, बधाई संदीप भाई ।
पटेल जी
क्या बात है ? बहुत अच्छी लगी i
आपको धन्यवाद i
छोड़ के वो हाथ मेरा जो चले थे
गमजदा हैं देख ये आबाद हैं हम .
बहुत खूब कहा
ढँक गए हैं गर्द से तो भूलिए मत
इस महल की रीढ़ हैं बुनियाद हैं हम
वाह वा भाई जी अच्छी ग़ज़ल कही है
सुन्दर ग़ज़ल बहुत बधाई आदरणीय संदीप भाई जी … सादर
बहुत अच्छे
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