जहाँ पर्वत पिघल रहा होगा
चरागे इश्क जल रहा होगा
परिंदे लौटने लगे घर को
चढ़ा सूरज जो ढल रहा होगा
बना है आदमी क्यूँ घोड़ा ये
कोई बच्चा मचल रहा होगा
गलितयों से जो दोस्ती कर ले
वो अपने हाथ मल रहा होगा
नयन हैं तिश्नगी भरे उसके
कोई तो ख्वाब पल रहा होगा
भरे है दर्द वो मगर न कहे
उसे अपना ही छल रहा होगा
छतों पे भीड़ औरतों की है
भई चंदा निकल रहा होगा
जले जो दीप आँधियों में भी
वो गर्दिशों को खल रहा होगा
संदीप पटेल "दीप"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
परिंदे लौटने लगे घर को
चढ़ा सूरज जो ढल रहा होगा....... वाह.....
बना है आदमी क्यूँ घोड़ा ये
कोई बच्चा मचल रहा होगा........ क्या बात है....
छतों पे भीड़ औरतों की है
भई चंदा निकल रहा होगा.......... वाह करवाचौथ............. बहुत ही बढ़िया गज़ल कही है आ0 संदीप भाई...... बधाई हो आपको....
छतों पे भीड़ औरतों की है
भई चंदा निकल रहा होगा,, वाह! इस शेअर तो करवाचौथ मना लिया| बहुत बढ़िया गज़ल काही आपने आ0 संदीप भाई!
एक बात कहना चाहती हूँ, आप कार्यकारिणी के सदस्य है| यदि आप ही गज़ल के साथ बहर संलग्न नहीं करेगे तो हमारे नए रचनाकारों को कैसे प्रेरणा मिलेगी|
सादर !!
बधाई आदरणीय ... बना है आदमी क्यूँ घोड़ा ये .. इसमें थोडा अटकाव प्रतीत हो रहा है.
सादर
भरे है दर्द वो मगर न कहे
उसे अपना ही छल रहा होग......वाह! यह शेर बहुत पसंद आया
बहुत बढ़िया गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय संदीप जी
उम्दा ग़ज़ल भाई जी! आपको बहुत बहुत बधाई!
आदरणीय भाई संदीप जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल,हार्दिक बधाई आपको //सादर
सुन्दर गज़ल हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें आ० संदीप जी
आ0 संदीप जी सुंदर गजल बहुत बधाई आपको ।
आदरणीय प्रिय मित्रवर वाह दिल खुश कर दिया आपने बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हरेक शेर लाजवाब ढेरों दिली दाद कुबूल फरमाएं.
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