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आज यों निर्लज्जता सरिता सी बहती जा रही है

आज यों निर्लज्जता सरिता सी बहती जा रही है  

द्वेष इर्षा और घृणा ले साथ बढती जा रही है

 

बिन परों के आसमाँ की सैर के सपने संजोते

पा रहे पंछी नए आयाम सब कुछ खोते खोते

 

लालसा भी कोयले पर स्वर्ण मढ़ती जा रही है

 

दिन गए वो खेल के जब खेलते थे सोते सोते  

अब गुजरता है लडकपन पुस्तकों का बोझ ढोते  

 

दौड़ है बस होड़ की जो क्या क्या गढ़ती जा रही है

 

काश के पंछी ही होते लौट आते शाम होते

कोसते भगवान् को भगवान ही यों रोते रोते

 

मंदिरों के शीर्ष पर भी गर्द चढ़ती जा रही है

 

संदीप पटेल “दीप”

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 1, 2014 at 5:57pm

कैसे हैं ? कहाँ हैं ? बहुत दिनों बाद कोई प्रस्तुति आयी है..

शुभ-शुभ

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 30, 2014 at 10:51am

मंदिरों के शीर्ष पर भी गर्द चढ़ती जा रही है --- वाह ! बहुत खूब ! हम कहाँ जा रहे है ? अब ह्रदय में नीरसता ही व्याप रही है 

हार्दिक बधाई श्री संदीप भाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 28, 2014 at 11:10am

संदीप जी

सुन्दर प्रयास है i

लालसा भी कोयले पर स्वर्ण मढ़ती जा रही है

 और

घोसलों की शीर्ष पर भी गर्द चढ़ती जा रही है

कृपया ध्यान दे...

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