रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब
माँ बाप भाई भाई में बँटने लगे हैं अब
लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ
सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब
वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए
यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब
बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें
याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब
नेताओं की सुहबत का असर उनपे देखिये
देकर जबान वो भी पलटने लगे हैं अब
मशरूफ “दीप” सब हैं क्या मिलना नसीब हो
मसले भी फोन पर ही सलटने लगे हैं अब
संदीप पटेल “दीप”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
//अब से याद रखूँगा स्नेह और आशीष बनाये रखिये //
भाईजी, इस मंच की कार्यकारिणी के अहम मेम्बर हैं आप. फिर तो जो कुछ मैंने आपसे निवेदित किया है, उसकी अपेक्षा आपसे थी उन सदस्यों के प्रति जो भूलवश ऐसा कुछ लिखना या मेन्शन करना छोड़ देते.
जय हो.. . :-))))))))))
आदरणीय श्यामनारायण जी, आदरणीय गिरिराज सर जी, आदरणीय शिज्जू जी, आदरणीय गोपाल सर जी, आदरणीय जीतेन्द्र जी, आदरणीय नादिर खान जी, आदरणीय सौरभ सर जी, आदरणीय डॉ प्राची जी, आदरणीय रमेश जी, आप सभी का ह्रदय से धन्यवाद, स्नेह और मार्गदर्शन यूँ ही बनाये रखिये ..........आदरणीय सौरभ सर जी सादर प्रणाम ,,,,,,अब से याद रखूँगा स्नेह और आशीष बनाये रखिये
लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ
सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब..............बहुत खूब :))
सुन्दर अशआर हुए हैं
हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर
मज़ा आ गया. संदीप भाईजी.
वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए
यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब...... यह शेर तो बस वाह वाह वाह ! ..
लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ
सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब...... :-)))))))))
जय हो....
भाई, ग़ज़ल के मिसरे का वज़्न तो दिया करें. .. उदाहरणार्थ, २२१ २१२१ १२२१ २१२ ..
बेहतरीन ....
लाजवाब......
बहुत खूब ......
संदीप जी
लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ
सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब..........तसल्ली की बात ...बहुत बढिया
वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए
यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब......................बेहतरीन ..दिल को छू गया
बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें
याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब........................शानदार शब्दों से वर्तमान पर्द्रिश्य का शानदार खाका ...ढेरो बधाई
बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें
याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब.......यह शेर बहुत पसंद आया
बेहतरीन गजल पर हार्दिक बधाई आदरणीय संदीप जी
//लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ
सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब
//मस्रूफ़ “दीप” सब हैं क्या मिलना नसीब हो
मसले भी फोन पर ही सलटने लगे हैं अब// आपके इन अशआर पर जनाब बद्र साहब का ये शेर याद आ रहा है
"कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ"
आदरणीय संदीप जी आपका ये लहजा कुछ हट के लगा दाद कुबूल करें
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