“तंत्र को पारदर्शी करो, तंत्र को पारदर्शी करो”। सरकारी दफ़्तर के बाहर सैकड़ों लोगों का जुलूस यही नारा लगाते हुए चला आ रहा था। अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। एक अधिकारी ने कहा, “जल्दी ही कुछ किया न गया तो जुलूस लगाने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं”। अंत में सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि तंत्र को पूर्णतया पारदर्शी बना दिया जाय।
कुछ ही दिनों में दफ़्तर की सारी दीवारें ऐसे शीशे की बनवा दी गईं जिससे बाहर की रोशनी अंदर न आ सके लेकिन अंदर की रोशनी बाहर जा सके। अब दफ़्तर का सारा काम काज बाहर से देखा जा सकता था। जनता बहुत खुश थी कि अब दफ़्तर के किसी कर्मचारी की हिम्मत नहीं होगी रिश्वत लेने की।
दफ़्तर के कर्मचारी बहुत खुश थे। पारदर्शी दफ़्तर का बाथरूम पारदर्शी नहीं था और उसे दुनिया का कोई संविधान कोई कानून कभी पारदर्शी नहीं बनवा सकता था। अब तो जाँच का भी कोई खतरा नहीं था क्योंकि दफ़्तर का सारा काम बाहर बैठे जाँच अधिकारियों की आँखों के सामने ही हो रहा था।
Comment
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय विजय शंकर जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रक्ताले जी
आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, सरकारी कार्य पर बहुत सुन्दर व्यंग.बंद गले कि स्वेटर से भी गर्दन बाहर आ ही जाती है. बधाई स्वीकारें.
Dr.Prachi Singh जी, बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा
व्यंग को एक नए तरह से प्रस्तुत किया है आपने इस लघुकथा में. हार्दिक बधाई
Saurabh Pandey जी, बहुत बहुत शुक्रिया। आप सही कह रहे हैं ऐसा मुझे भी लगा था। दुबारा विचार करूँगा इस पर। मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
Dipak Mashal जी, सही बात है बीरबल ने सच ही कहा था। धन्यवाद
rajesh kumari जी, बहुत बहुत शुक्रिया।
seema agrawal जी, बहुत बहुत शुक्रिया
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