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लड़की चीख़ी

चिल्लायी भी

मगर हैवानों के कान बंद पड़े थे

नहीं सुन पाये

उसकी आवाज़ का दर्द

 

वह रोयी बहुत

आँखों से उसके

झर-झर आँसू गिरे

ख़ून के आँसू  

मगर हैवानों की आँखें

पत्थर की थी

वो आँसुओं का दर्द

नहीं देख पाये

 

वो हिचकियाँ लेकर

सिसकती रही

दुहाई देती रही  

कभी इंसानी रिश्तों की

कभी ईश्वर की

मगर हैवानों के दिल नहीं थे

वो दर्द महसूस न कर सके

वो घंटों लड़ती रही हैवानों से

अब मौत से लड़ रही है

 

दूर खड़ा शैतान हँस रहा है

मुस्कुरा रहा है

एक बार फिर

वो अपने मक़सद पर कामयाब रहा  

इंसानियत को तार –तार कर गया

इंसानों का इंसानों पर से

विश्वास हिला गया

सभ्य समाज को आईना दिखा गया 

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Comment by नादिर ख़ान on December 25, 2012 at 9:40pm

सही कहा अदरणीय अशोक जी 

आज इंसानियत शर्मशार है और इंसान दुखी है ।

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 25, 2012 at 7:43pm

आदरणीय नादिर खान साहब सादर, सुन्दर रचना. अवश्य ही आज इंसानियत बहुत शर्मिंदा है.देश में हैवान बेखोफ घूम रहे हैं.

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