हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में ।
आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में ।
देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।
शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में ।
यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में ।
Comment
आदरणीय सौरभ जी, आप जैसे जानकार अग्रज/मित्र की टिप्पणी पाकर (मुझ जैसे) नये (और अल्पज्ञानी) रचनाकार को कितना सुकून मिलता है, बयाँ नहीं कर सकता । :)
आपको गज़ल अच्छी लगी, मेरा गज़ल कहने का मकसद साकार हुआ ।
आगे भी आपसे एवम OBO परिवार के अन्य मित्रों से मार्गदर्शन और सहयोग की उम्मीद में....
--- आशीष 'सलिल' :)
विलम्ब से इस सुन्दर प्रस्तुति पर आने के लिए क्षमा चाहता हूँ, भाई आशीष नैथानी सलिलजी.
आपकी ग़ज़ल मतला से मक्ता तक एक विशेष अंदाज़ में है और आपके सुन्दर प्रयास का सशक्त बखान है. विशेषकर मक्ते के लिए मैं बार-बार धन्यवाद कह रहा हूँ -
यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में । .... वाह, सलिल जी वाह !
बह्र को बहर कहना विशेष रूप से भाया है.
शुभेच्छाएँ.
शुक्रिया आदरणीय गणेश जी ! गजल को बहर में लिखना सीख रहा हूँ और आप सभी से मार्गदर्शन की आशा रखता हूँ ।
गजल पसन्द करने के लिये एक बार पुनः धन्यवाद । :)
देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।
वाह वाह, बहुत ही सुन्दर कहन, सभी अशआर खुबसूरत निकाले हैं, अच्छी ग़ज़ल आशीष नैथानी जी , दाद कुबूल करें |
भाई 'अनन्त जी' गजल पसन्द करने और हौसला-अफजाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया ।
आपने हर शेर पर दाद लिखी, अद्भुत लगा । :-)
हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में । बढ़िया
आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में । वाह वाह
देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में । क्या बात है
शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में । मजेदार
यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में । सुन्दर अति सुन्दर
मित्रवर अच्छी गज़ल बन पड़ी है, सभी के सभी अशआर खूबसूरत हैं दिली दाद कुबूलें. सादर
शुक्रिया शुभ्रा जी !
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में,
वाह सलिल जी सुन्दर पंक्ति,
हम भी जीते है बेमन से इस शहर में
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