दूर किसी स्टेशन से
शहर के ट्रैफिक को चीरते हुए
फुटपाथ पर उनींदे पड़े बच्चे का स्पर्श लिए
चौथे माले पर बेरोजगारों के कमरे तक
तुम्हारा आना
उन उखड़ी सड़कों से होते हुए
जहाँ की धूल विकास के नारों पर मुस्कुराती है,
बस की पिछली सीढ़ियों से लटकते हुए
बेटिकट पहुँचना मेरे गाँव
और मुझे छज्जे के कोने पर बैठा देख
यक-ब-यक मुस्कुराना
तुम्हारा आना
छिपकली की तरह दीवार पर
आँधियों की तरह…
ContinueAdded by आशीष नैथानी 'सलिल' on October 6, 2014 at 11:34pm — 2 Comments
इधर-उधर की न कर, बात दिल की कर साक़ी
सुहानी रात हुआ करती मुख़्तसर साक़ी ||
खिला-खिला है हर इक फूल दिल के सहरा में
तुम्हारे इश्क़ का कुछ यूँ हुआ असर साक़ी ||
अजीब दर्दे-मुहब्बत है ये शकर जैसा
जले-बुझे जो सितारों सा रातभर साक़ी ||
उतार फेंक हया शर्म के सभी गहने
कि रिस न जाए ये शब, हो न फिर सहर साक़ी ||
है बरकरार तेरा लम्स* मेरे होंठों पर
कि जैसे ओंस की इक बूँद फूल पर साक़ी ||
ख़ुदा से और न दरख़ास्त एक…
ContinueAdded by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 30, 2014 at 11:00pm — 21 Comments
देवदार के पत्ते पर
बर्फ के कतरे जितनी
मेरी अभिलाषा |
उस पर भी दुनिया की सौ-सौ शर्तें
सौ-सौ पहरे
तीक्ष्ण-तल्ख भाषा |
पलकों की ड्योढ़ी पर बैठे स्वप्न
कुछ नेपथ्य में टूट-फूट
करते विलाप
सभी प्रतीक्षारत, कब छँटे
घना कुहासा |
प्रस्वेदित तन
म्लानता का प्रचण्ड सूरज
जीवन नभ पर
और सिद्धि की
शून्य सदृश आशा |
भिक्षुक द्वार खड़ा आशीष लिए
दानी परदे में बैठा
यहाँ कौन भिक्षुक…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 13, 2014 at 12:51am — 8 Comments
पीड़ितों के बीच से तलवार लेकर आ गये
आप नाटक में नया किरदार लेकर आ गये |
मैं समझता था हर इक शै है बहुत सस्ती यहाँ
एक दिन बाबा मुझे बाज़ार लेकर आ गये |
माँ के हाथों की बनी स्वेटर थमाई हाथ में
आप बच्चे के लिए संसार लेकर आ गये |
क़त्ल, चोरी, घूसखोरी, खुदखुशी बस, और क्या
फिर वही मनहूस सा अख़बार लेकर आ गये |
दोस्तों से अब नहीं होती हैं बातें राज़ की
चन्द लम्हे बीच में दीवार लेकर आ गये |
--…
ContinueAdded by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 26, 2013 at 8:31pm — 14 Comments
(२१२२ १२१२ २२)
एक बीमार की दवा जैसे
तुम मेरे पास हो ख़ुदा जैसे |
साँस-दर-साँस ज़िन्दगी का सफ़र
और तुम आखिरी हवा जैसे |
उनकी आँखों में बस मेरा चेहरा
आइनों से हो सामना जैसे |
रूह ! बेकार है बदन तुझ बिन
इक लिफ़ाफ़ा है बिन पता जैसे |
आपकी मुस्कुराहटों की कसम
हो गया जन्म दूसरा जैसे |
- आशीष नैथानी 'सलिल'
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 3, 2013 at 11:30pm — 21 Comments
एक ग़ज़ल - चाँद सूरज गुलाब रक्खा है !!
(२१२२ १२१२ २२/११२)
चाँद सूरज गुलाब रक्खा है |
ख़त में ख़त का जवाब रक्खा है ||
सिसकियों में कटी जो रात उसका
कागज़ों पर हिसाब रक्खा है ||
शामियाना तेरी मुहब्बत का
एक ऐसा भी ख़्वाब रक्खा है ||
लफ़्ज करते नहीं शिकायत क्या
खामुशी का नकाब रक्खा है ||
याद करना तुम्हें ख़ुदा की तरह
आदतों को ख़राब रक्खा है ||
ओढ़ रक्खी हैं झुर्रियाँ मैंने
और…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on October 5, 2013 at 8:05pm — 36 Comments
(मात्रिक विन्यास -- २१२२ २१२२ २१२ )
इतनी आसाँ ज़िंदगी होगी नहीं
मुश्किलों से दोस्ती होगी नहीं |
दर्द से कागज़ पे करना रौशनी
हर किसी से शाइरी होगी नहीं |
रुक न पाया सिलसिला जो बाँध का
कल के दिन भागीरथी होगी नहीं |
इस तरह कुचला गया जो हर गुलाब
फिर किसी घर में कली होगी नहीं |
मुद्दतों के बाद याद आया कोई
मेरे घर अब तीरगी होगी नहीं |
- आशीष नैथानी 'सलिल'
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 25, 2013 at 7:00pm — 24 Comments
( २१२२ २१२२ २१२ )
क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई
दोस्ती हमको निभानी आ गई |
बाँधकर रखता भला कैसे उसे
आज पिंजर तोड़कर चिड़िया गई |
चूड़ियों की खनखनाहट थी सुबह
शाम को लौटी तो घर तन्हा गई |
लहलहाते खेत थे कल तक यहाँ
आज माटी गाँव की पथरा गई |
कैस तुमको फ़ख्र हो माशूक पर
पत्थरों के बीच फिर लैला गई |
आज फिर आँखों में सूखा है 'सलिल'
जिंदगी फिर से तुम्हें झुठला गई |
-- आशीष नैथानी 'सलिल'…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 5, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
(२१२२, २१२२,२१२२,२१२)
नफरतों की बात छोड़ें, प्यार की बातें करें
दुश्मनों को रहने दें, दिलदार की बातें करें ।
तोड़ दें हथियार सारे, फेंक दें तलवार भी
क्या बुरा जो हम कलम की धार की बातें करें ।
'गोधरा' के भूत को फिर याद कर होगा भी क्या
ईद-होली और कुछ त्यौहार की बातें करें ।
है सियासत, खेल-कारोबार है, सब कुछ तो है
मेज पर रक्खे हुए अखबार की बातें करें ।
गाँव कस्बे और फिर इस शहर की बातें हुई
आज छत पर बैठकर संसार की बातें करें…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on July 18, 2013 at 1:10am — 15 Comments
गाँव के कच्चे घरों में…
ContinueAdded by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 28, 2013 at 11:26am — 22 Comments
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 5, 2013 at 11:55pm — 21 Comments
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 14, 2013 at 11:28pm — 12 Comments
आँख जैसे लगी, ख़ाक घर हो गया
जुल्म का प्रेत कितना निडर हो गया ।
कुछ दरिन्दों ने ऐसी मचाई गदर
खौफ की जद में मेरा नगर हो गया ।
थी किसी की दुकाँ या किसी का महल
चन्द लम्हों में जो खण्डहर हो गया ।
है नजर में महज खून ही खून बस
आज श्मसान 'दिलसुखनगर' हो गया ।
थी ख़बर साजिशों की मगर, बेखबर !
ये रवैया बड़ा अब लचर हो गया ।
कौन सहलाये बच्चे का सर तब 'सलिल'
जब भरोसा बड़ा मुख़्तसर हो गया ।
------ आशीष 'सलिल'…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 22, 2013 at 10:00pm — 24 Comments
राज की बात हम तलक ही रहे
ये मुलाक़ात हम तलक ही रहे ।
कुछ सवालात पूछ बैठे हम
कुछ सवालात हम तलक ही रहे ।
उनके इल्ज़ाम सब थे झूठे मगर
मेरे इस्बात हम तलक ही रहे ।
डर है तुझको बहा न ले जाये
ऐसी बरसात हम तलक ही रहे ।
इन सितारों को बाँट ले दुनिया
चाँदनी रात हम तलक ही रहे ।
(इस्बात - प्रमाण/सुबूत)
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 17, 2013 at 11:31pm — 33 Comments
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 20, 2013 at 3:06pm — 11 Comments
समय के इस कशाकश में, बदलना सीख जायेंगे
गिरेंगे फिर उठेंगे, खुद ही चलना सीख जायेंगे ।
नदी नालों ने ली है जान कुछ लाचार धारों की
करो मजबूत पैरों को, ये पलना सीख जायेंगे ।
कटे पंखों से उडती है जिगर वाली वो गौरेया,
नये मौसम में पर फिर से निकलना सीख जायेंगे ।
नहीं पहचानते बच्चे अभी तक लाल अंगारा,
हथेली पर रखेंगे तो ये जलना सीख जायेंगे ।
'सलिल' छोड़ो ये वैशाखी चलो थामो कलम-कागज,
सियासत डगमगायेगी, बदलना सीख जायेंगे ।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 13, 2013 at 3:26pm — 10 Comments
हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में ।
आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में ।
देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।
शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में ।
यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में ।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 11, 2013 at 6:32pm — 8 Comments
जिस तरह दिनकर चमकता
व्योम में,
अलविदा कहता निशा को,
बादलों के झुण्ड को
पीछे धकेले ।
काश होता एक सूरज
ख़ुशी का भी ।
कोई तापता धूप सुबह की,
कोई बिस्तर डाल देता दोपहर के घाम में ।
खुशनुमा गरमी भी होती
कम व ज्यादा,
पूष से ज्येष्ठ तक ।
और पसीना भी निकलता,
इत्र सा ।
काश कल्पा हो उठे साकार,
एक 'खुशकर' हो भी जाये
दिवाकर सा ।।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 8, 2013 at 7:30pm — 6 Comments
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