समय के इस कशाकश में, बदलना सीख जायेंगे
गिरेंगे फिर उठेंगे, खुद ही चलना सीख जायेंगे ।
नदी नालों ने ली है जान कुछ लाचार धारों की
करो मजबूत पैरों को, ये पलना सीख जायेंगे ।
कटे पंखों से उडती है जिगर वाली वो गौरेया,
नये मौसम में पर फिर से निकलना सीख जायेंगे ।
नहीं पहचानते बच्चे अभी तक लाल अंगारा,
हथेली पर रखेंगे तो ये जलना सीख जायेंगे ।
'सलिल' छोड़ो ये वैशाखी चलो थामो कलम-कागज,
सियासत डगमगायेगी, बदलना सीख जायेंगे ।
Comment
शुक्रिया, आदरणीय अशोक जी |
आशीष जी बढ़िया गजल.सादर बधाई स्वीकारें.
आदरणीय सौरभ जी, मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ । निःसंदेह समय के साथ जब समझ बढती है तो रचनाओं में कुछ खामियाँ नजर आती है। मैं इस बात को गंभीरता से स्वीकार करता हूँ और आगे से कुछ अच्छी रचनायें लिखने का वादा करता हूँ। आपका यह मार्गदर्शन सदैव सीख बनकर साथ रहेगा ।
सादर प्रणाम । :)
//लेकिन मैं संयत होने की बात समझ नहीं पाया//
ग़ज़ल ही नहीं, सलिलजी कोई रचना, पाठकों के सामने जाने के पहले अपने पग जाने के लिए आवश्यक समय की चाहना रखती है, ताकि लगातार आवश्यक सुधारों से उसका स्वरूप और-और निखर कर पाठकों के सामने आये. यह एक रचनाकार का दायित्व है कि वह अपनी रचनाओं को यथासंभव समय दे और आवश्यक सुधार कर उसे पूर्णता दे. वैसे यह प्रक्रिया किसी रचनाकार के लिए कितनी लम्बी हो यह उक्त रचनाकार के साहित्य-सामर्थ्य और उसके स्वाध्याय पर निर्भर करती है. आप अपनी कुछ पुरानी रचनाओं को आज पुनः देखें आपका स्वयं का नज़रिया, स्पष्ट है, अलग होगा.
सादर
आदरणीय 'बागी जी' आपको गजल अच्छी लगी, मुझे अच्छा लगा । शुक्रिया ।
आदरणीय सौरभ जी, आपकी बात पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा लेकिन मैं संयत होने की बात समझ नहीं पाया । ग़जल में जो भी कमी हो, मुझे अवगत करायें एवं मार्गदर्शन करने का कष्ट करें ।
मैं गजल का शिल्प अभी सीख ही रहा हूँ और जानता हूँ कि अनेक खामियाँ होंगी । यही वह मंच है जहाँ पर नये और अनुभवहीन रचनाकार, बड़ों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीख रहे हैं ।
आप सभी से मार्गदर्शन की अपेक्षा में । :)
ख्याल बढ़िया है, ग़ज़ल अच्छी लगी , दाद कुबूल करें ।
आपकी कोई पहली स्वतंत्र प्रस्तुति देख रहा हूँ, भाई आशीष नैथानी ’सलिल’ जी. आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल में बहुत संभावनाएँ हैं. थोड़ा और संयत हो कर इसे साझा किया होता तो यह एक यादग़ार ग़ज़ल होती. फिरभी, आपकी कोशिश रंग लायी है और मैं आपको मुबारकबाद देता हूँ.
शुभ-शुभ
शुक्रिया, आदरणीय प्रदीप जी !!!
कटे पंखों से उडती है जिगर वाली वो गौरेया,
नये मौसम में पर फिर से निकलना सीख जायेंगे ।
नहीं पहचानते बच्चे अभी तक लाल अंगारा,
हथेली पर रखेंगे तो ये जलना सीख जायेंगे ।
वाह क्या बात है
बधाई
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