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भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता-सह-आयोजन : एक विशद रिपोर्ट

ई-पत्रिका ओपेन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम (प्रचलित संज्ञा ओबीओ) अपने शैशवाकाल से ही जिस तरह से भाषायी चौधराहट तथा साहित्य के क्षेत्र में अति व्यापक दुर्गुण ’एकांगी मठाधीशी’ के विरुद्ध खड़ी हुई है, इस कारण संयत और संवेदनशील वरिष्ठ साहित्यकारों-साहित्यप्रेमियों, सजग व सतत रचनाकर्मियों तथा समुचित विस्तार के शुभाकांक्षी नव-हस्ताक्षरों को सहज ही आकर्षित करती रही है.

प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकरजी की निगरानी तथा प्रबन्धन एवं कार्यकारिणी के निष्ठावान सदस्यों के मनोयोग से ’सीखने-सिखाने’ के स्पष्ट दर्शन तथा नव-हस्ताक्षरों को व्यापक मंच उपलब्ध कराने एवं भाषा को सार्थक, सरस व सुलभ बनाये रखने’ के पवित्र उद्येश्य के साथ ओबीओ अपनी समस्त प्रतीत होती सीमाओं के बावज़ूद एक सजग मंच के रूप में निरंतर क्रियाशील रहा है. इस विन्दुवत तपस का ओबीओ के मंच को समुचित प्रतिसाद के रूप में सदस्यों तथा रचनाकारों का आत्मीय सहयोग तो मिलता ही है, नेपथ्य से भी शुभचिंतकों का आवश्यक सहयोग मिलता रहा है.

ओबीओ का प्रबन्धन किसी एक भाषा या किसी एक विधा विशेष के प्रति जड़वत आग्रही न हो कर अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान तथा साहित्य की अन्यान्य विधाओं के प्रति भी रचनाकारों तथा पाठकों को समुचित रूप से प्रोत्साहित करता रहा है. तभी तो ओबीओ के पटल पर जहाँ एक ओर अंग्रेज़ी का वर्ग दिखता है तो वहीं नेपाली, पंजाबी, भोजपुरी और मैथिली के भी वर्ग भी अपनी अहम मौज़ूदग़ी के साथ उपलब्ध हैं. यह अवश्य है कि मंच पर हिन्दी भाषा-भाषियों की प्रखर सक्रियता एकदम से उभरी हुई दिखती है.
 
अपने तीन प्रमुख मासिक आयोजनों की आशातीत सफलता के साथ-साथ ओबीओ प्रबन्धन द्वारा भोजपुरी भाषा के समूह को सक्रिय, रोचक तथा सार्थक बनाने के लिए भोजपुरी काव्य-प्रतियोगिता को प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया. यह एक ऐसा निर्णय था जो प्रबन्धन के समस्त सदस्यों को रोमांचित तो कर रहा था, परन्तु, ओबीओ पर व्याप्त हिन्दी-सम्मत वातावरण को देखते हुए इसकी सफलता के प्रति उन्हें सशंकित भी कर रहा था.

हालाँकि शंका का कारण ऊपर से तो निर्मूल दिख रहा था. परन्तु, जो सचाई है वह यही है कि भोजपुरी भाषियों ने अपने देश में अपनी मातृभाषा के प्रति ऐसा अगाध आग्रह कभी नहीं दिखाया है, जहाँ किसी साहित्यिक गतिवधि को उत्साहवर्द्धक प्रतिसाद मिला दिखा हो, शुरु से ही ! साहित्य-कर्म की बात छोड़िये, भोजपुरी में पारस्परिक बोलचाल तक को अन्यान्य शहरों में बस गये परिवारों द्वारा आवश्यक प्रश्रय मिलता दिखा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता ! यह एक चुभता हुआ तथ्य है, किन्तु सत्य है. यही कारण है कि भारत के एक बड़े भूभाग को प्रभावित करती भोजपुरी अपनी अदम्य जीजिविषा के बल पर भले ही शताब्दियों से आजतक संसृत होती चली आ रही हो, इसके उत्थान और हित के लिए यदा-कदा हुए प्रारम्भिक प्रयासों को यदि छोड़ दिया जाय, तो कोई सुगढ़ वैज्ञानिक प्रयास हुआ कभी दिखा नहीं. उसपर से भाषा के लिहाज से भोजपुरी भाषा-भाषियों की अक्षम्य आत्म-विस्मृति कहिये अथवा निरंकुश आत्म-मुग्धता, अबतक इस भाषा के लगातार हाशिये पर चलते चले जाने के लिए प्रमुख कारणों में से हैं.  भोजपुरिहा लोगों के बीच दासा भले झण्ड बा, तबहूँ घमण्ड बा.. जैसे अति प्रचलित मसल आखिर अन्य् भाषा-भाषियों को अपने बारे में क्या संदेश देते हैं ?

इतना ही नहीं, आंचलिक भाषाओं के उत्थान के कभी-कभार के प्रयासों की जड़ों में मट्ठा पिलाने जैसा निर्घिन कार्य मुख्य धारा के कतिपय मूर्धन्य विद्वानों ने सायास किया है, जिसके अनुसार देश की आंचलिक भाषाओं को सामान्य बोलियों (सामान्य को अनगढ़ पढ़ें) की संज्ञा दे कर उन्हें ’हिन्दी की सहयोगी’ मात्र मानने और मनवाने का कुचक्र रचा गया.

कहना न होगा, भोजपुरी इस षडयंत्र की सबसे बड़ी शिकार हुई. कारण कि, हिन्दी भाषा के उत्थान में भोजपुरी भाषा-भाषियों का जो योगदान और जैसा समर्पण रहा है, वह प्राणवाहक रुधिर बन हिन्दी भाषा की धमनियों में दौड़ता है. ऐसा समर्पण और इतना उदार योगदान तो स्वयं खड़ी हिन्दी भाषी क्षेत्र के विद्वानों का भी नहीं रहा है, जिनकी मातृभाषा ही खड़ी हिन्दी है.  हाथ कंगन को आरसी क्या, आधुनिक हिन्दी के भारतेन्दु, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, निराला, शिवपूजनसहाय, राहुल सांकृत्यायन, गोपाल सिंह नेपाली, रामवृक्ष बेनीपुरी ही नहीं, आज के नीरज, केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, नामवर सिंह आदि जैसे मस्तिष्क में एकदम से उभर कर आ रहे सादर प्रणम्य नामों के अथक योगदानों को बिसरा कर हिन्दी के स्वरूप को देख लिया जाय !

हमें जिस सहजता से अवधी, ब्रज, भोजपुरी या मैथिली के प्राचीन लोक-रचनाकारों को हिन्दी के प्रारम्भिक रचनाकार मान लेने की घुट्टी पिलायी जाती है, उसी सहजता से बांग्ला, मराठी, पंजाबी या अन्य पड़ोसी भाषाओं के आरम्भिक लोक-रचनाकारों को हिन्दी का रचनाकार क्यों नहीं बताया जाता ? नहीं-नहीं, तनिक बता कर तो देख लें ! उन भाषाओं को बोलने वाले तुरत तीव्र प्रतिकार कर उठेंगे. जबकि, कबीर, तुलसी या भक्तिकाल में भोजपुरी क्षेत्र के अनेकानेक रचनाकारों ने उदारता से उपरोक्त भाषाओं से मात्र शब्द ही नहीं, क्रियापद तक भी लिया है !

हमें यह पूरी ताकत से स्वीकार करना होगा कि भाषाएँ अपने प्रारम्भिक काल में  --अथवा अपने ज़मीनी रूप में--  किसी व्याकरण और नियमावलियों की पिछलग्गू नहीं हुआ करतीं. वो तो निर्बाध नदिया की अजस्र धारा की तरह होती हैं, जो गुण-धर्म के लिहाज से सर्वग्राही हुआ करती है.  भाषा व्याकरण और नियमादि तो बाद में उस भाषा को साधने के लिए निर्मित होते हैं. यही हिन्दी के साथ हुआ है जिसने अपने व्याकरण का मूल जस का तस संस्कृत से उठा लिया है. इन संदर्भों में भोजपुरी अपने आरम्भ से ही निर्बाध नदिया रही है और इसके विन्यास की शैली सदा-सदा से उन्मुक्त धारा सी रही है. इस परिप्रेक्ष्य में षडयंत्रों का पाश तो इतना कठोर और क्रूर था, कि स्थापित भाषाओं के नाम बनायी गयी कसौटियों पर भोजपुरी जैसी भाषाएँ समृद्ध भाषाओं के श्रेणी में आ ही नहीं सकती थीं ! चाहे उनका स्वरूप जितना ही संभावनाओं भरा क्यों न रहा हो ! इस कारण, जहाँ भोजपुरी भाषा-भाषी लगातार हीनता के मकड़जाल में फँसते चले गये, वहीं इसके व्यापक रूप और इसकी विस्तृत भौगोलिक पहुँच के कारण धूर्त व्यवसायी पू्री बेशर्मी से इसके दोहन में लग गये. यानि, जिस असहाय गाय को आवश्यक चारा-पानी तक कायदे से मयस्सर नहीं हुआ था, उसे बलात् दूहने के लिए कई-कई नामों के आवरण ले कर एक पूरी जमात खड़ी हो गयी. 

विसंगतियों से भरी इस पृष्ठभूमि के साथ, ओबीओ के पटल पर प्रबन्धन ने भोजपुरी-हित के मद्देनज़र एक काव्य प्रतियोगिता-सह-आयोजन को प्रारम्भ करने का निर्णय लिया. भोजपुरी के स्वरूप को लेकर बात अवश्य उठी लेकिन कोई चिंता नहीं थी, भले ही अपने एक सर्वमान्य स्वरूप के लिए भोजपुरी भाषा आजतक हाथ-पैर मारती दिख रही है !  सही भी है, यह भोजपुरी भाषा का दोष नहीं, बल्कि भोजपुरी भाषा-भाषियों की कमी अधिक है.  इसी कारण, आयोजन हेतु ओबीओ प्रबन्धन द्वारा प्रतियोगिता हेतु भोजपुरी के व्यापक स्वरूप को स्वीकारा गया जिसके अंतर्गत इस भाषा की तीन मुख्य शैलियाँ हैं. एक, मूल भोजपुरी के साथ-साथ इसके विभिन्न प्रारूप, दो, इसका बज्जिका सम्मत स्वरूप तथा तीन, इसका काशिका सम्मत स्वरूप.

एक निर्णायक समिति बनी, जिस के लिए तीन सदस्य नामित हुए. आवश्यक और मूलभूत नियमावलियाँ बनीं. इस पूरे क्रम में ओबीओ के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकरजी, जो स्वयं सूबा पंजाब से ताल्लुक रखते हैं, का उत्साह इस आयोजन के प्रारम्भ होने का सबसे बड़ा कारण बना. आप ही का यह सुझाव था कि प्रतियोगिता में चयनित प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थानधारियों को पुरस्कार के रूप में प्रमाण-पत्रों के साथ-साथ नगदराशियाँ भी अवश्य प्रदान की जायँ. इस सामुदायिक कार्यक्रम में पुरस्कार की राशियों हेतु प्रायोजक भी बढ़-चढ़ कर सामने आये. दो कम्पनियों, मोहाली, (चण्डीगढ़) की एक अग्रणी सॉफ़्टवेयर कम्पनी घ्रीक्स टेक्नोलोजी प्रा. लि. तथा नई दिल्ली से संचालित संगीत के क्षेत्र में कार्यरत गोल्डेन बैंड इण्टरटेण्मेंट कम्पनी ने प्रतियोगिता के प्रायोजन का दायित्व लिया. 

तय हुआ कि प्रथम पुरस्कार में ओबीओ प्रमाण-पत्र के साथ रु. 1001/- , द्वितीय पुरस्कार में ओबीओ प्रमाण-पत्र के साथ रु. 551/- तथा तृतीय पुरस्कार में ओबीओ प्रमाण-पत्र के साथ रु. 501/- प्रदान किया जाय.  भोजपुरी के गीतों के गीतकार श्री सतीश मापतपुरी जी को इस भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता-सह-आयोजन के संचालन का दायित्व सौंपा गया. इस तरह ओबीओ पटल आयोजन हेतु तैयार हुआ.

प्रतियोगिता-सह-आयोजन के पहले अंक में प्रतिभागिता हेतु शीर्षक था - आपन देस. इस आयोजन में भोजपुरी समूह के सभी सदस्य भाग ले सकते थे, जो भोजपुरी में रचना कर सकते हों. हाँ,
जो सदस्य प्रतियोगिता में भाग न लेना चाहें, किन्तु आयोजन में प्रतिभागिता करना चाहते हों, उन सदस्यों के लिए विशेष प्रावधान किया गया कि वे अपनी रचनाओं को ’प्रतियोगिता से अलग’-टैग के साथ प्रस्तुत करें. ओबीओ की परिपाटी के अनुरूप ही ओबीओ के प्रबन्धन और कार्यकारिणी के सदस्यों को ’प्रतियोगिता से अलग’-टैग के साथ प्रतिभागिता करनी थी. 

इस तरह से पहला आयोजन 24 जनवरी’ 13 से प्राम्भ हो कर 26 जनवरी’ 13 तक चला. इस प्रथम प्रतियोगिता-सह-आयोजन में 13 प्रतिभागियों की कुल 23 रचनाएँ प्रस्तुत हुईं.  जिनमें प्रतियोगिता से अलग रचनाएँ अलग से निर्दिष्ट थीं.

शास्त्रीय छंदों में जहाँ घनाक्षरी, मत्तगयंद सवैया, किरीट सवैयादोहों की सरस काव्यधार बही, वहीं गीत, नवगीत और गेय कविताओं की काव्यधाराओं में भी पाठकों ने खूब गोते लगाये. वैचारिक अतुकांत कविताओं को पसंद करने वाला पाठक-वर्ग भी अछूता नहीं रहा. कहने का अर्थ यह, कि कविताओं की करीब-करीब सभी प्रचलित विधाओं व शैलियों से कुछ न कुछ प्रस्तुत हुआ, जो रचनाकारों की के उन्नत काव्य-प्रयास का भी द्योतक है.

रचनाओं के लिहाज से हिन्दी भाषा के विद्वान तथा कई आंचलिक भाषाओं के जानकार आचार्य संजीव सलिल जी ने जहाँ पाठकों की मनस-क्षुधा को अपनी प्रस्तुति दोहा-छंदों से संतुष्ट करने का प्रयास किया, वहीं उनका पाठकधर्म निभाते हुए रचनाकारों को प्रोत्साहित किया जाना आयोजन के प्रतिभागियों के लिए प्रेरणा का कारण भी बना. गनेस जी बाग़ी ने अपनी प्रस्तुत तीन रचनाओं में से घनाक्षरी-छंद और मत्तगयंद सवैया-छंद के सस्वर पाठ की फाइल लगा कर पाठक-समुदाय को तो चौंका ही दिया. वहीं मंजरी पाण्डेय, सतीश मापतपुरी तथा बृजभूषण चौबे ने अपने गीतों से सभी को मुग्ध कर दिया. मृदुला शुक्ला ने ठेठ ग्रामीण किंतु अभिनव बिम्बों से अपने नवगीतों की सार्थकता को सबल किया. विशाल चर्चित अपनी गेय कविता की प्रस्तुति से अवश्य ही आयोजन में चर्चा का विषय रहे, जिसका कथ्य अत्यंत प्रभावी था, तो, प्रदीप कुमार कुशवाहा, पियुष द्विवेदी, प्रभाकर पाण्डेय, आशुतोष अथर्व तथा विश्वजीत यादव के सार्थक योगदान और सार्थक प्रस्तुतियों से यह आयोजन और समृद्ध हुआ. इन पंक्तियो का लेखक यह नाचीज़ यानि मैं, सौरभ पाण्डेय, भी प्रतिभागी विद्वानों की रौ में बहता हुआ तीन प्रस्तुतियों के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा सका, जिसमें गीत और अतुकांत कविता के साथ-साथ एक रचना किरीट सवैया-छंद में भी थी. 

कहना न होगा कि, ओबीओ के मंच पर प्रारम्भ हुआ यह प्रयास आने वाले समय में कई-कई सकारात्मक अवधारणाओं का संवाहक और प्रासंगिक गतिविधियों का साक्षी होगा.

******************************
--सौरभ पाण्डेय

सदस्य, प्रबन्धन समिति, ओबीओ.

"ओ बी ओ भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता" अंक - 1

"ओ बी ओ भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता" अंक - 1 में आइल सभ रचना एके जगह

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 8, 2013 at 6:35pm

सादर आदरणीय प्रदीपजी.. .

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on February 8, 2013 at 5:33pm

आदरणीया गुरुदेव 

सौरभ जी 

हमरा परनाम स्वीकार किहेल जाई .

हमनी के बरी खुसी  भएल की रचना का सार्थक श्रेणी माँ तारीफ भएल. सुकरिया.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 5, 2013 at 7:46am

भाई संदीप जी, भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता सह आयोजन ही नहीं किसी आयोजन में प्रतिभागिता एक ऊँची वैचारिक दशा है. लेकिन यह आवश्यक नहीं कि प्रतिभागिता केवल रचना-प्रयास और उसकी प्रस्तुतियों से ही संतुष्ट होती है. हम-आप अपनी उपस्थिति पाठक-धर्म निभा कर भी जता सकते हैं.

यदि आपने आयोजन को पन्ने-दर-पन्ने देखे हों तो आपको मालूम होगा कि भोजपुरी भाषा से इतर भाषा-भाषी पाठक-पाठिकाओं की भी अहम उपस्थिति रही. और उन्हीं के सम्मान में बाद में भोजपुरी के क्लिष्ट शब्दॊं के हिन्दी अर्थ भी जोड़े गये ताकि ऐसे पाठकों के पद्य-आनन्द में व्यवधान न आये.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 2, 2013 at 6:59pm

आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम

गुरुदेव पहले तो बिलम्ब के लिए क्षमा चाहता हूँ

तत आपके इस रपट से मुझे एक बात स्पष्ट समझ आई की आंचलिक भाषाओँ का साहित्य के निर्माण में एक बहुत बड़ा योगदान रहा है जिसे नकारा नहीं जा सकता है

मुझे भोजपुरी का सम्पूर्ण ज्ञान न होने की वजह से मैं इस प्रतियोगिता मैं भाग नहीं ले सका

किन्तु ये निर्णय इसीलिए नहीं था के मैं हार जाऊंगा या रचना कैसी होगी

वरन केवल यही सोच के हिस्सा नहीं लिया के कहीं भाषा को ठेस न पहुंचे क्यूंकि ग़लत लिखने से बेहतर है उसे मान देना

स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2013 at 1:15pm

डॉ.प्राची, आपका भाषायी प्रेम उच्च स्तर का है. चाहे भाषा कोई हो. सही भी है, भाषा कोई हो, बुरी या त्याज्य हो ही नहीं सकती. हाँ, भाषा के नाम पर चौधराहट बुरी है या फिर आरोपित आग्रह बुरा होता है. यह आरोपण उस तरह का नहीं है जिसके नाम पर हिन्दी को एक भाषा के तौर पर अ-हिन्दी भाषी राज्यों के राजनीतिबाज नकारने या टालने का कुचक्र रचते हैं. बल्कि, यहाँ उस आरोपण को इंगित कर रहा हूँ जो अंग्रेज़ी के पिछलग्गू इस भाषा को जिलाने रखने के लिये करते रहे हैं.

आपने जिस उदारता और मनोयोग से भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता-सह-आयोजन में एक पाठ के तौर भाग लिया है वह मंच के अन्यान्य सदस्यों के लिए एक आदर्श उदाहरण सदृश है.

आदरणीया, सही मायनों में आपकी और आद. राजेश कुमारी जी की सहर्ष उपस्थिति ही मुझ जैसे प्रतिभागियों को भोजपुरी रचनाओं में प्रयुक्त शब्दों के सामान्य हिन्दी अर्थ या उनके हिन्दी भावार्थ नत्थी करने को अनुप्रेरित कर पाये.  

//आंचलिक भाषाएँ तो हमारी विविध संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं, यदि भाषा को प्रोत्साहन और संरक्षण मिलता है तो उस भूभाग की संस्कृति का संरक्षण होता है.//

एकदम सही कहा, आपने.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2013 at 12:59pm

आदरणीय आचार्य जी, आपकी सटीक प्रतिक्रिया उद्येश्यपूर्ण है. मैं आपके कहे को समझ रहा हूँ.

यह अवश्य है कि कतिपय अति-उत्साही तथाकथित आंचलिकभाषाप्रेमी (चाहे भोजपुरीभाषायी, चाहे अवधीभाषायी या मैथिलीभाषायी या बुन्देलखण्डीभाषायी या अन्य) आजकल इस-उस साइट और ब्लॉग पर या सम्मेलनों में हिन्दी भाषा के विरोध में जैसा विषवमन करते फिर रहे हैं, यह अत्यंत आश्चर्य और दुःख का कारण है. वे ये भी नहीं समझते कि वे एक बहुत बड़े षड्यंत्रकारी चक्र का हिस्सा बने हैं और अत्यंत ही शातिर दिमागों के हाथों में मूर्खवत् खेल रहे हैं. ऐसे षड्यंत्रकारी शातिर लोग कौन हो सकते हैं, या सही कहिये कौन हैं, हम-आप या सजग हिन्दीप्रेमी भी खूब जानते हैं.

आदरणीय, कई विन्दु हैं जिनके नाम पर प्रारम्भ से ही भाषाओं के नाम पर भारतीय जनमानस को उलझाये रखा गया है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से यह कुचक्र अधिक विन्दुवत् हुआ है. एक भाषा के तौर पर हिन्दी के भाग्य में ऐसे कुचक्री सदा-सदा से रोड़े अँटकाते रहे हैं. आजकल तो यह कुचक्र अधिक सघन हुआ दीखता है. इसी कुचक्र का अत्यंत घिनौना हिस्सा रहा है, आंचलिक भाषाओं को हाशिये पर रखा जाना, या, अब, उनके उत्थान के नाम पर, हिन्दी के विरुद्ध ऐसे-ऐसे कुतर्कों को रचा जाना जो एक सामान्य हिन्दीप्रेमी अपने देश में लोमड़-चालाकी से पैठी हुई एक विदेशी भाषा के प्रति महसूस करता रहा है.

यह सभी को अच्छी तरह से मालूम है कि हिन्दी एक भाषा के तौर पर गंगाघाटी और इसके आसपास की भाषाओं से निर्विघ्न संजीवनी पाती रही है. उन आंचलिक भाषाओं के शब्दों का हिन्दी में उपयोग-प्रयोग कोई आज की बात नहीं है. ऐसा होना हिन्दी की प्रतिष्ठा और सबलता के लिए अत्यंत आवश्यक है. 

मेरा अपने रिपोर्ट के माध्यम से बस इतना ही कहना है कि भोजपुरी के विकास हेतु हिन्दी-हित हेतु कार्य करते विद्वानों को अवश्य सोचना चाहिये या चाहिये था. अपनी मातृभाषा को सतत हाशिये पर जाता हुआ देखने बावज़ूद उसके हित हेतु नहीं सोचना कम ही आंचलिक भाषाओं के विद्वानों द्वारा हुआ है जैसा कि भोजपुरी भाषियों द्वारा हुआ है. जबकि भोजपुरी भाषा से सम्बद्ध विद्वानों की पूरी जमात हिन्दी-उत्थान में जी-जान से लगी रही है. कल भी और आजभी.  आदरणीय, आपके सामने उदाहरण नहीं रखूँगा.

//सुझाव कि सभी भारतीय भाषाएँ देवनागरी लिपि अपनाएं, वास्तव में अपनाया गया होता तो आज भाषिक सौहाद्रता का वातावरण होता.//

यह एक ऐसा प्रयास होता या होगा जिससे सभी भाषाओं का उत्थान अवश्यंभावी है. आज की उर्दू इसका सटीक उदाहरण है.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 1, 2013 at 12:33pm

आदरणीय सौरभ जी 

सादर प्रणाम!

ओबीओ भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता -आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट के लिए हार्दिक साधुवाद.

आंचलिक भाषाएँ तो हमारी विविध संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं, यदि भाषा को प्रोत्साहन और संरक्षण मिलता है तो उस भूभाग की संस्कृति का संरक्षण होता है. ऐसे ही शुभ मंतव्य को लेकर ओबीओ नें प्रादेशिक भाषाओं के उत्थान की तरफ यह कदम बढाया है, जो अत्यंत सराहनीय है.

प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के साथ साथ भावों व संस्कृति के आदान-प्रदान की उदारता निहित करते इस ई-पत्रिका के भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता समारोह की सफलता पर ह्रदय हर्षित है.

हार्दिक शुभकामनाएं इस भाषाई षड्यंत्रों का कुछ विशेष भाग साझा करती और आंचलिक भाषा उत्थान के प्रति चिंतन की आवश्यकता को उजागर करती रिपोर्ट पर.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2013 at 12:04pm

आदरणीय राजेश कुमारीजी, आपके साहित्य अनुराग से हम सभी वाकिफ़ हैं. आपके रचनाकर्म में सतत प्रयास से आये सुधार और ऊँचाई को इस मंच पर हमसभी ने हृदय से महसूस किया है. आपने जिस तरह से उक्त आयोजन में एक जागरुक पाठक की हैसियत से शिरकत कर प्रतिभागियों का उत्साह बढाया है वह मंच के अन्यान्य सदस्यों के लिए भी अनुकरणीय है.

भोजपुरी का एक भाषा के तौर पर कभी किसी संपर्क भाषा, चाहे वह हिन्दी ही क्यों न हो, से बिगाड़ नहीं रहा है, बस आयोजन की प्रासंगिकता के लिहाज से यह अवश्य कहा गया है कि इस भाषा के संयमित किये जाना का प्रयास सही ढंग से नहीं हुआ है.  इसी की चर्चा इस रिपोर्ट में हुई है.

आपका सादर आभार, आदरणीया.. .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2013 at 11:49am

आदरणीय अशोक भाईजी, आपकी रचानाधर्मिता, आपका साहित्य-अनुराग आपके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है. आप अपनी भाषायी सीमाओं को लांघते हुए जिस तरह से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, वह न केवल श्लाघनीय है, बल्कि हिन्दी भाषा-भाषी युवा-हस्ताक्षरों और रचनाकर्मियों के लिए भी उदाहरण सदृश है कि रचनाकर्म कुछ भावुक शब्दों का प्रस्तुतिकरण मात्र न होकर एक तपस है जो भाव-शब्द-शिल्प के मध्य संतुलन की अपेक्षा करता है. 

आपका ओबीओ के सभी आयोजनओं सहर्ष स्वागत है, आदरणीय. यदि किसी रचनाकार की हैसियत शिरकत कर रहे हैं तो अति उत्तम, अन्यथा यह भी सही है कि भावनाओं को शब्द भले ही भाषाओं के अनुसार मिलें किन्तु उनका आग्रह भाषाओं से इतर हुआ करता है जो एक संवेदनशील मनुष्य सहज ही हृदयंगम कर सकता है. 

आपका आभार.

Comment by sanjiv verma 'salil' on February 1, 2013 at 9:46am

हम अतीत की कडवाहट को कुरेदने के स्थान पर वर्तमान को सँवारें, यह अधिक महत्वपूर्ण है. लोकभाषा का विशेषण शर्म नहीं गर्व का विशेषण है. हिंदी का गौरव है कि उसकी जड़ें अनेक लोकभाषाओं से पोषित होती हैं. मैं बुंदेलखंड से होने के बाद भी खडी हिंदी, बुन्देली, भोजपुरी, मैथिली, अवधि, बृज, छतीसगढ़ी, निमाड़ी, मालवी, राजस्थानी, हरयाणवी आदि भाषा रूपों में रचने का प्रयास करता हूँ यह जानते हुए भी कि उनमें अशुद्धियाँ होंगी ही. भोजपुरी भाषी अन्य भाषा रूपों में हाथ न आजमायें और अपेक्षा करें कि सब भोजपुरी में लिखें यह भी सही नहीं है. यह भी सत्य है कि कोई भी भाषा रूप विश्व वाणी नहीं बन सकेगा किन्तु टकराव की राह पर जाकर हिंदी का अहित कर अंगरेजी को सबल करेगा. क्या माता-पिता तथा  बच्चे सभी परिवार के सदस्य नहीं होते? यदि लोकभाषाओँ को हिंदी परिवार का सदस्य कहा जाए तो आपत्ति क्यों? भाषिक एकता के लिए आवश्यक है कि हर रचनाकार हिंदी तथा एकाधिक लोकभाषा में रचना कर्म कर अन्यों से जुड़े, उन्हें जाने. केवल अपनी लोकभाषा को अतिरेकी महत्त्व देना ममत्व तो हो सकता है किन्तु अन्य लोकभाषाओं की अनकही अनदेखी भी लग सकता है. सभी लोक भ्श्स्यें सामान महत्त्व की अधिकारिणी हैं, सभी ने हर देश-काल में सामाजिक परिवर्तनों, संघर्षों और निर्माण में योगदान किया है, तभी तो वे जीवित हैं. बेहतर हो उनकी शब्द सम्पदा, मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों को संकलित कर हिंदी में प्रयोग किया जाए ताकि अधिक से अधिक भारतवासी उससे परिचित हों. मराठी, बांग्ला, गुजराती, उर्दू. सिन्धी आदि की युवा पीढ़ी उनसे कटते जा रहे एही या उन्हें देवनागरी लिपि के माध्यम से ही पढ़ रही है. बापू का सुझाव कि सभी भारतीय भाषाएँ देवनागरी लिपि अपनाएं, वास्तव में अपनाया गया होता तो आज भाषिक सौहाद्रता का वातावरण होता. इसमें राजनीति और कट्टरता ही बाधक हुई. निवेदन यह कि किसी एक नहीं सभी लोक भाषाओँ की समान पक्षधरता हो तथा अन्य भाषाओँ की रचनाओं को देवनागरी में लेन का प्रयास हो.  यह मेरी सम्मति मात्र है, विवाद का विषय नहीं. शेष सभी जैस्सा सोचें... लिखें स्वागत है. 

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Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Nov 17
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Nov 17
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Nov 17
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Nov 17

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