ई-पत्रिका ओपेन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम (प्रचलित संज्ञा ओबीओ) अपने शैशवाकाल से ही जिस तरह से भाषायी चौधराहट तथा साहित्य के क्षेत्र में अति व्यापक दुर्गुण ’एकांगी मठाधीशी’ के विरुद्ध खड़ी हुई है, इस कारण संयत और संवेदनशील वरिष्ठ साहित्यकारों-साहित्यप्रेमियों, सजग व सतत रचनाकर्मियों तथा समुचित विस्तार के शुभाकांक्षी नव-हस्ताक्षरों को सहज ही आकर्षित करती रही है.
प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकरजी की निगरानी तथा प्रबन्धन एवं कार्यकारिणी के निष्ठावान सदस्यों के मनोयोग से ’सीखने-सिखाने’ के स्पष्ट दर्शन तथा नव-हस्ताक्षरों को व्यापक मंच उपलब्ध कराने एवं भाषा को सार्थक, सरस व सुलभ बनाये रखने’ के पवित्र उद्येश्य के साथ ओबीओ अपनी समस्त प्रतीत होती सीमाओं के बावज़ूद एक सजग मंच के रूप में निरंतर क्रियाशील रहा है. इस विन्दुवत तपस का ओबीओ के मंच को समुचित प्रतिसाद के रूप में सदस्यों तथा रचनाकारों का आत्मीय सहयोग तो मिलता ही है, नेपथ्य से भी शुभचिंतकों का आवश्यक सहयोग मिलता रहा है.
ओबीओ का प्रबन्धन किसी एक भाषा या किसी एक विधा विशेष के प्रति जड़वत आग्रही न हो कर अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान तथा साहित्य की अन्यान्य विधाओं के प्रति भी रचनाकारों तथा पाठकों को समुचित रूप से प्रोत्साहित करता रहा है. तभी तो ओबीओ के पटल पर जहाँ एक ओर अंग्रेज़ी का वर्ग दिखता है तो वहीं नेपाली, पंजाबी, भोजपुरी और मैथिली के भी वर्ग भी अपनी अहम मौज़ूदग़ी के साथ उपलब्ध हैं. यह अवश्य है कि मंच पर हिन्दी भाषा-भाषियों की प्रखर सक्रियता एकदम से उभरी हुई दिखती है.
अपने तीन प्रमुख मासिक आयोजनों की आशातीत सफलता के साथ-साथ ओबीओ प्रबन्धन द्वारा भोजपुरी भाषा के समूह को सक्रिय, रोचक तथा सार्थक बनाने के लिए भोजपुरी काव्य-प्रतियोगिता को प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया. यह एक ऐसा निर्णय था जो प्रबन्धन के समस्त सदस्यों को रोमांचित तो कर रहा था, परन्तु, ओबीओ पर व्याप्त हिन्दी-सम्मत वातावरण को देखते हुए इसकी सफलता के प्रति उन्हें सशंकित भी कर रहा था.
हालाँकि शंका का कारण ऊपर से तो निर्मूल दिख रहा था. परन्तु, जो सचाई है वह यही है कि भोजपुरी भाषियों ने अपने देश में अपनी मातृभाषा के प्रति ऐसा अगाध आग्रह कभी नहीं दिखाया है, जहाँ किसी साहित्यिक गतिवधि को उत्साहवर्द्धक प्रतिसाद मिला दिखा हो, शुरु से ही ! साहित्य-कर्म की बात छोड़िये, भोजपुरी में पारस्परिक बोलचाल तक को अन्यान्य शहरों में बस गये परिवारों द्वारा आवश्यक प्रश्रय मिलता दिखा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता ! यह एक चुभता हुआ तथ्य है, किन्तु सत्य है. यही कारण है कि भारत के एक बड़े भूभाग को प्रभावित करती भोजपुरी अपनी अदम्य जीजिविषा के बल पर भले ही शताब्दियों से आजतक संसृत होती चली आ रही हो, इसके उत्थान और हित के लिए यदा-कदा हुए प्रारम्भिक प्रयासों को यदि छोड़ दिया जाय, तो कोई सुगढ़ वैज्ञानिक प्रयास हुआ कभी दिखा नहीं. उसपर से भाषा के लिहाज से भोजपुरी भाषा-भाषियों की अक्षम्य आत्म-विस्मृति कहिये अथवा निरंकुश आत्म-मुग्धता, अबतक इस भाषा के लगातार हाशिये पर चलते चले जाने के लिए प्रमुख कारणों में से हैं. भोजपुरिहा लोगों के बीच दासा भले झण्ड बा, तबहूँ घमण्ड बा.. जैसे अति प्रचलित मसल आखिर अन्य् भाषा-भाषियों को अपने बारे में क्या संदेश देते हैं ?
इतना ही नहीं, आंचलिक भाषाओं के उत्थान के कभी-कभार के प्रयासों की जड़ों में मट्ठा पिलाने जैसा निर्घिन कार्य मुख्य धारा के कतिपय मूर्धन्य विद्वानों ने सायास किया है, जिसके अनुसार देश की आंचलिक भाषाओं को सामान्य बोलियों (सामान्य को अनगढ़ पढ़ें) की संज्ञा दे कर उन्हें ’हिन्दी की सहयोगी’ मात्र मानने और मनवाने का कुचक्र रचा गया.
कहना न होगा, भोजपुरी इस षडयंत्र की सबसे बड़ी शिकार हुई. कारण कि, हिन्दी भाषा के उत्थान में भोजपुरी भाषा-भाषियों का जो योगदान और जैसा समर्पण रहा है, वह प्राणवाहक रुधिर बन हिन्दी भाषा की धमनियों में दौड़ता है. ऐसा समर्पण और इतना उदार योगदान तो स्वयं खड़ी हिन्दी भाषी क्षेत्र के विद्वानों का भी नहीं रहा है, जिनकी मातृभाषा ही खड़ी हिन्दी है. हाथ कंगन को आरसी क्या, आधुनिक हिन्दी के भारतेन्दु, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, निराला, शिवपूजनसहाय, राहुल सांकृत्यायन, गोपाल सिंह नेपाली, रामवृक्ष बेनीपुरी ही नहीं, आज के नीरज, केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, नामवर सिंह आदि जैसे मस्तिष्क में एकदम से उभर कर आ रहे सादर प्रणम्य नामों के अथक योगदानों को बिसरा कर हिन्दी के स्वरूप को देख लिया जाय !
हमें जिस सहजता से अवधी, ब्रज, भोजपुरी या मैथिली के प्राचीन लोक-रचनाकारों को हिन्दी के प्रारम्भिक रचनाकार मान लेने की घुट्टी पिलायी जाती है, उसी सहजता से बांग्ला, मराठी, पंजाबी या अन्य पड़ोसी भाषाओं के आरम्भिक लोक-रचनाकारों को हिन्दी का रचनाकार क्यों नहीं बताया जाता ? नहीं-नहीं, तनिक बता कर तो देख लें ! उन भाषाओं को बोलने वाले तुरत तीव्र प्रतिकार कर उठेंगे. जबकि, कबीर, तुलसी या भक्तिकाल में भोजपुरी क्षेत्र के अनेकानेक रचनाकारों ने उदारता से उपरोक्त भाषाओं से मात्र शब्द ही नहीं, क्रियापद तक भी लिया है !
हमें यह पूरी ताकत से स्वीकार करना होगा कि भाषाएँ अपने प्रारम्भिक काल में --अथवा अपने ज़मीनी रूप में-- किसी व्याकरण और नियमावलियों की पिछलग्गू नहीं हुआ करतीं. वो तो निर्बाध नदिया की अजस्र धारा की तरह होती हैं, जो गुण-धर्म के लिहाज से सर्वग्राही हुआ करती है. भाषा व्याकरण और नियमादि तो बाद में उस भाषा को साधने के लिए निर्मित होते हैं. यही हिन्दी के साथ हुआ है जिसने अपने व्याकरण का मूल जस का तस संस्कृत से उठा लिया है. इन संदर्भों में भोजपुरी अपने आरम्भ से ही निर्बाध नदिया रही है और इसके विन्यास की शैली सदा-सदा से उन्मुक्त धारा सी रही है. इस परिप्रेक्ष्य में षडयंत्रों का पाश तो इतना कठोर और क्रूर था, कि स्थापित भाषाओं के नाम बनायी गयी कसौटियों पर भोजपुरी जैसी भाषाएँ समृद्ध भाषाओं के श्रेणी में आ ही नहीं सकती थीं ! चाहे उनका स्वरूप जितना ही संभावनाओं भरा क्यों न रहा हो ! इस कारण, जहाँ भोजपुरी भाषा-भाषी लगातार हीनता के मकड़जाल में फँसते चले गये, वहीं इसके व्यापक रूप और इसकी विस्तृत भौगोलिक पहुँच के कारण धूर्त व्यवसायी पू्री बेशर्मी से इसके दोहन में लग गये. यानि, जिस असहाय गाय को आवश्यक चारा-पानी तक कायदे से मयस्सर नहीं हुआ था, उसे बलात् दूहने के लिए कई-कई नामों के आवरण ले कर एक पूरी जमात खड़ी हो गयी.
विसंगतियों से भरी इस पृष्ठभूमि के साथ, ओबीओ के पटल पर प्रबन्धन ने भोजपुरी-हित के मद्देनज़र एक काव्य प्रतियोगिता-सह-आयोजन को प्रारम्भ करने का निर्णय लिया. भोजपुरी के स्वरूप को लेकर बात अवश्य उठी लेकिन कोई चिंता नहीं थी, भले ही अपने एक सर्वमान्य स्वरूप के लिए भोजपुरी भाषा आजतक हाथ-पैर मारती दिख रही है ! सही भी है, यह भोजपुरी भाषा का दोष नहीं, बल्कि भोजपुरी भाषा-भाषियों की कमी अधिक है. इसी कारण, आयोजन हेतु ओबीओ प्रबन्धन द्वारा प्रतियोगिता हेतु भोजपुरी के व्यापक स्वरूप को स्वीकारा गया जिसके अंतर्गत इस भाषा की तीन मुख्य शैलियाँ हैं. एक, मूल भोजपुरी के साथ-साथ इसके विभिन्न प्रारूप, दो, इसका बज्जिका सम्मत स्वरूप तथा तीन, इसका काशिका सम्मत स्वरूप.
एक निर्णायक समिति बनी, जिस के लिए तीन सदस्य नामित हुए. आवश्यक और मूलभूत नियमावलियाँ बनीं. इस पूरे क्रम में ओबीओ के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकरजी, जो स्वयं सूबा पंजाब से ताल्लुक रखते हैं, का उत्साह इस आयोजन के प्रारम्भ होने का सबसे बड़ा कारण बना. आप ही का यह सुझाव था कि प्रतियोगिता में चयनित प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थानधारियों को पुरस्कार के रूप में प्रमाण-पत्रों के साथ-साथ नगदराशियाँ भी अवश्य प्रदान की जायँ. इस सामुदायिक कार्यक्रम में पुरस्कार की राशियों हेतु प्रायोजक भी बढ़-चढ़ कर सामने आये. दो कम्पनियों, मोहाली, (चण्डीगढ़) की एक अग्रणी सॉफ़्टवेयर कम्पनी घ्रीक्स टेक्नोलोजी प्रा. लि. तथा नई दिल्ली से संचालित संगीत के क्षेत्र में कार्यरत गोल्डेन बैंड इण्टरटेण्मेंट कम्पनी ने प्रतियोगिता के प्रायोजन का दायित्व लिया.
तय हुआ कि प्रथम पुरस्कार में ओबीओ प्रमाण-पत्र के साथ रु. 1001/- , द्वितीय पुरस्कार में ओबीओ प्रमाण-पत्र के साथ रु. 551/- तथा तृतीय पुरस्कार में ओबीओ प्रमाण-पत्र के साथ रु. 501/- प्रदान किया जाय. भोजपुरी के गीतों के गीतकार श्री सतीश मापतपुरी जी को इस भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता-सह-आयोजन के संचालन का दायित्व सौंपा गया. इस तरह ओबीओ पटल आयोजन हेतु तैयार हुआ.
प्रतियोगिता-सह-आयोजन के पहले अंक में प्रतिभागिता हेतु शीर्षक था - आपन देस. इस आयोजन में भोजपुरी समूह के सभी सदस्य भाग ले सकते थे, जो भोजपुरी में रचना कर सकते हों. हाँ, जो सदस्य प्रतियोगिता में भाग न लेना चाहें, किन्तु आयोजन में प्रतिभागिता करना चाहते हों, उन सदस्यों के लिए विशेष प्रावधान किया गया कि वे अपनी रचनाओं को ’प्रतियोगिता से अलग’-टैग के साथ प्रस्तुत करें. ओबीओ की परिपाटी के अनुरूप ही ओबीओ के प्रबन्धन और कार्यकारिणी के सदस्यों को ’प्रतियोगिता से अलग’-टैग के साथ प्रतिभागिता करनी थी.
इस तरह से पहला आयोजन 24 जनवरी’ 13 से प्राम्भ हो कर 26 जनवरी’ 13 तक चला. इस प्रथम प्रतियोगिता-सह-आयोजन में 13 प्रतिभागियों की कुल 23 रचनाएँ प्रस्तुत हुईं. जिनमें प्रतियोगिता से अलग रचनाएँ अलग से निर्दिष्ट थीं.
शास्त्रीय छंदों में जहाँ घनाक्षरी, मत्तगयंद सवैया, किरीट सवैया व दोहों की सरस काव्यधार बही, वहीं गीत, नवगीत और गेय कविताओं की काव्यधाराओं में भी पाठकों ने खूब गोते लगाये. वैचारिक अतुकांत कविताओं को पसंद करने वाला पाठक-वर्ग भी अछूता नहीं रहा. कहने का अर्थ यह, कि कविताओं की करीब-करीब सभी प्रचलित विधाओं व शैलियों से कुछ न कुछ प्रस्तुत हुआ, जो रचनाकारों की के उन्नत काव्य-प्रयास का भी द्योतक है.
रचनाओं के लिहाज से हिन्दी भाषा के विद्वान तथा कई आंचलिक भाषाओं के जानकार आचार्य संजीव सलिल जी ने जहाँ पाठकों की मनस-क्षुधा को अपनी प्रस्तुति दोहा-छंदों से संतुष्ट करने का प्रयास किया, वहीं उनका पाठकधर्म निभाते हुए रचनाकारों को प्रोत्साहित किया जाना आयोजन के प्रतिभागियों के लिए प्रेरणा का कारण भी बना. गनेस जी बाग़ी ने अपनी प्रस्तुत तीन रचनाओं में से घनाक्षरी-छंद और मत्तगयंद सवैया-छंद के सस्वर पाठ की फाइल लगा कर पाठक-समुदाय को तो चौंका ही दिया. वहीं मंजरी पाण्डेय, सतीश मापतपुरी तथा बृजभूषण चौबे ने अपने गीतों से सभी को मुग्ध कर दिया. मृदुला शुक्ला ने ठेठ ग्रामीण किंतु अभिनव बिम्बों से अपने नवगीतों की सार्थकता को सबल किया. विशाल चर्चित अपनी गेय कविता की प्रस्तुति से अवश्य ही आयोजन में चर्चा का विषय रहे, जिसका कथ्य अत्यंत प्रभावी था, तो, प्रदीप कुमार कुशवाहा, पियुष द्विवेदी, प्रभाकर पाण्डेय, आशुतोष अथर्व तथा विश्वजीत यादव के सार्थक योगदान और सार्थक प्रस्तुतियों से यह आयोजन और समृद्ध हुआ. इन पंक्तियो का लेखक यह नाचीज़ यानि मैं, सौरभ पाण्डेय, भी प्रतिभागी विद्वानों की रौ में बहता हुआ तीन प्रस्तुतियों के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा सका, जिसमें गीत और अतुकांत कविता के साथ-साथ एक रचना किरीट सवैया-छंद में भी थी.
कहना न होगा कि, ओबीओ के मंच पर प्रारम्भ हुआ यह प्रयास आने वाले समय में कई-कई सकारात्मक अवधारणाओं का संवाहक और प्रासंगिक गतिविधियों का साक्षी होगा.
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--सौरभ पाण्डेय
सदस्य, प्रबन्धन समिति, ओबीओ.
Comment
कई अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की तरह सरस भाषा भोजपुरी भी काल चक्र के षड्यंत्रों की शिकार होकर पिसती रही है आपके आलेख में इस बात की काफी जानकारी मिली ,भोजपुरी को वापस उसका स्थान उसकी प्रतिष्ठा दिलाने हेतु ओ बी ओ के पवित्र बहु आयामी मंच पर यह प्रतियोगिता एक सार्थक प्रयास रहा काफी हद तक सफल भी रहा आगे भी रहेगा ,भोज पुरी जानती तो नहीं किन्तु इसकी सरसता हमेशा कर्णप्रिय रही थोडा बहुत समझ भी जाती हूँ बहुत सी रचनाओं को पढ़ा भी रचनाकारों में एक अनूठा उत्साह महसूस किया इस आयोजन की सफलता हेतु सभी को बधाईयाँ और इस उत्कृष्ट आलेख हेतु आपको हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी ।
आदरणीय सौरभ जी सादर, क्षेत्रीय भाषाओं को मंच से सदैव ही उंचाइयां प्रदान करने कि कोशिश देखी गयी है. भोजपुरी रचनाओं का प्रतियोगिता सह आयोजन बहुत सफल रहा है और यह प्रयोग ही कहूँ किन्तु यह सफल रहा है. चूँकि मेरा भोजपुरी से कोई सीधा वास्ता नही है किन्तु सुनने पढने में रुचिकर लगती भाषा के कारण मैंने आयोजन कि कई रचनाओं को पढ़ा भी है और भरपूर आनंद लिया. किन्तु कुछ भी लिख पाना मुझसे संभव नहीं हुआ. मुझे आशा है कि आगे अन्य सदस्य जो भोजपुरी भाषा कि जानकारी रखते हैं वे इस आयोजन के अगले अंक में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेंगे.शुभकामनाएं.
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