आदत हो गयी है,
आंख बंद करने की!
अच्छा बुरा कुछ भी हो ,
आदत हो गयी सहने की !!
आश्रित बनकर जीते है,
फेकी हुयी रोटी खाते है ,
हत्या कर देते है स्वाभिमान की ,
शायद! इसलिए झुककर जीते है !!
हम एक झूठी दुनियां में ,
अधखुली नींद सोते है!
वाह्य कठोरता दिखाते है !
अन्दर से फिर क्यूँ रोते है !!
आडम्बरों से भरा जीवन ,
बन चुकी कमजोरी है ,
वास्तविकता से सम्बन्ध नहीं ,
क्या ऐसा करना ज़रूरी है !!
आखिर कब तक यूँ हीं,
भ्रान्तिमय जीवन जियेंगे ,
न चाहते हुए भी ,
अपने ग़मों को पीयेंगे !!
राम शिरोमणि पाठक'दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
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