सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं
छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं
उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन
मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं
उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से
अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं
ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं
जिसकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो ‘सज्जन’
प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते हैं
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(यह ग़ज़ल स्वरचित एवं अप्रकाशित है)
Comment
शुक्रिया आशीष नैथानी 'सलिल' साहब
इस अपार स्नेह के लिए बहुत बहुत धन्यवाद बागी जी और विशेष दाद के लिए आपका विशेष शुक्रगुजार हूँ।
बहुत बहुत शुक्रिया rajesh kumari जी, स्नेह यूँ ही बना रहे
बहुत बहुत धन्यवाद Dr.Prachi Singh जी, स्नेह अनवरत बनाए रखें
धन्यवाद विजय मिश्र जी
Dr.Ajay Khare जी, शुक्रिया जनाब
वाह ! कौन कहता है गज़ल सिर्फ जुल्फों-रुखसार और अरिजो-गुल की बातें करती है ! रसोईघर की बाते भी होती है ! वाह ! इस एक वाह को वाहवाही का अनवरत सिलसिला समझा जाए ! :-)
बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर!
बधाई।
विजय निकोर
भाई धर्मेंद्रजी, घरेलू सन्नाटे के पसरेपन पर क्या कलम चली है ! साहब, आपकी सोच-प्रक्रिया में ही गोया इस्पेशल बैक्टिरिया घर कर गये हैं ! वर्ना ऐसे कोई समझ भी लेता है क्या ? --
उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन
मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं .... ... ..... क्या नहीं देख लिया !!! ...
मैं इस ग़ज़ल पर दिल से बधाई दे रहा हूँ.
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