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कंधों पर तू ढो रहा ,क्यों कागज का भार|
आरक्षण तुझको मिले,पढ़ना है बेकार||-------(व्यंग्य)


मन कागज पर जब चले ,होकर कलम अधीर|
शब्द-शब्द मिलते गले ,बह जाती है पीर||


भावों-शब्दों में चले,जब आपस में द्वंद|
मन के कागज पर तभी,रचता कोई छंद||


टूटे रिश्ते जोड़ दे ,सुन, नन्हीं सी जान|
कोप सुनामी मोड़ दे ,बालक की मुस्कान||


फूलों से साबित करें ,कैसी है ये रीत|
कागज का दिल दे रहे ,कैसे समझें प्रीत||


रिश्ते कागज पर बने ,कागज पर ही भस्म|
बिन फेरों के शादियाँ ,कैसी है ये रस्म||


तन की पाती सब पढ़ें ,मन की पढ़ें न कोय|
जो मन की पाती पढ़ें ,तो दुःख काहे होय||


अरमानो को बाँधती,रस्मों की जंजीर|
भीगे कागज पर लिखी ,नारी की तक़दीर||


कागज ही से धन मिले ,कागज ही से ज्ञान|
वृक्षों से कागज बने , कीमत तू पहचान||


पहले पत्तों पर लिखे ,फिर कागज पर ग्रन्थ|
अब कंप्यूटर पर दिखे ,लेखन के नव पंथ ||
*******************************************

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Comment

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Comment by vijay nikore on February 16, 2013 at 11:44pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी,

 

अति सुन्दर! अति सुन्दर!

 

विजय निकोर

Comment by Pankaj Trivedi on February 16, 2013 at 11:31pm

अदभुत दोहावली के लिये बधाई

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 16, 2013 at 9:53pm
बहुत ही सुन्दर दोहावली है आदरणीया राजेश कुमारी जी!सादर साधुवाद।
तृतीय दोहे के तृतीय पद में यद्यपि मात्रायें तो पूरी हैं लेकिन शब्द प्रयोग कुछ अटपटा लग रहा।

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