आखिरी बार कब चिल्लाए थे तुम
याद है तुम्हें?
जब पैदा हुए थे
तब शायद
गला फाड़कर
पूरी ताकत के साथ
चीखकर रोए थे तुम
क्योंकि तब
दुनिया के रिवाजों से अनजान
तुम्हें अपनी भूख
जायज लगी थी
तब तुम्हें लगा था
अपनी भूख मिटाना
जरूरी है जीने के लिए
जैसे जैसे बड़े होते गए
दुनिया के भय
दिल में घर करते गए
रिवाजों ने जकड़ लिया
अपने अधिकार गौढ़ लगने लगे
अपनी हैसियत छोटी
और तुमने उनके अनुसार
ढालना शुरू कर दिया खुद को
अब तुम्हें
अपनी भूख जरूरी नहीं लगती
जायज नहीं मानते
इसीलिए चिल्लाना बंद कर दिया
तुम्हें लगता है कि
भूख कुछ ज्यादा हो गयी है
और दिन प्रतिदिन
कम करते जा रहे हो
अपनी जरूरत
इसीलिए तुम्हारा पेट
अब पिचककर पीठ से सट गया
किसी पिटे हुए कनस्तर की तरह
जब निगलते हो
कोई निवाला
साफ दिखाई देता है
तुम्हारी आंतों से उतरता
तुम्हारे शरीर से झलकता है
तुम्हारा ढांचा
हिलते डुलते अस्थि पंजर की तरह
बस तुम चले जा रहे हो
तुम्हारा गला
सिकुड़कर छोटा हो गया
सिर लटककर आगे झुक गया
ठोढ़ी छूने लगी है
पसलियों को
कभी कुछ बोलते हो
आवाज गले में दबकर
घुट जाती है
घरघराहट का शोर भर
सुनाई देता है
हाशिए पर पड़े हो
कोई पूछने वाला नहीं
किस हड्डी में हो रहा है
दर्द
लेकिन अब चीखना जरूरी है
एक बार चीखो
पूरी ताकत लगाकर
कि ठोढ़ी सीधी हो जाए
लगे कि जिंदा हो अभी
मात्र कंकाल भर नहीं तुम
चिल्लाना जरूरी है
अपना अस्तित्व बचाने के लिए
मज्जा तो बची नहीं
चीखे नहीं तो
ये खाल भी न बचेगी
और हड्डियां
दफन कर दी जाएंगी
किसी नाले के किनारे
गड्ढा खोदकर।
- बृजेश नीरज
Comment
धन्यवाद लक्ष्मण जी!
सुन्दर भाव है, बधाई स्वीकारे ब्रिजेश कुमार सिंह जी
गणेश जी आपका आभार! आपकी टिप्पणी ने लिखने का साहस बढ़ाया।
भाई ब्रिजेश जी, आपकी रचना उस गहरे खड्डे से निकल कर आ रही है जो दफ़न के कगार पर थी, बहुत ही उचित और सार्थक बात, बात से ही बात निकलती है, रचना कम शब्दों में ही बहुत बड़ी बात कहने में समर्थ है , बहुत ही मार्मिक रचना, बधाई स्वीकार करें महोदय ।
आपका आभार! आपकी हौसला अफज़ाई से लिखने का साहस बढ़ा!
चिल्लाना जरूरी है
अपना अस्तित्व बचाने के लिए
मज्जा तो बची नहीं
चीखे नहीं तो
ये खाल भी न बचेगी
और हड्डियां
दफन कर दी जाएंगी
किसी नाले के किनारे
गड्ढा खोदकर।
सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें भाई जी !!!
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