यहां कोई क्रांति नहीं होने वाली
लाख हो-हल्ला हो
धरने और अनशन हों
क्रांति की सामग्री मौजूद नहीं यहां
जाति, धर्म, क्षेत्र में बंटे
लोग क्रांति नहीं करते
अपने पेट की फिकर में परेशान
लोग आंदोलन नहीं करते
सत्ता को राजा की तरह पूजने वाले लोग
परिवर्तन नहीं लाते
वर्जनाओं की आदत पड़ चुकी
सीमित साधनों में जीना स्वीकार कर चुके हैं
पैदा होते ही आत्मसात कर लिया
हम जनता हैं
हमें ढोना है एक उम्र
जिंदगी नहीं
गांधी के बंदरों की तरह
न हम देखते हैं
न सुनते हैं
न बोलते हैं
जो छिटपुट शोर-शराबा होता है
वह कुछ लोगों का शगल भर है
कुछ खाली लोगों का टाइमपास
कुछ धनाढ्य का शौक
कुछ सिरफिरों की सनक
अखबारों में फोटो छपने के बाद
सबकुछ शान्त
अपने जीवन के पुराने रंग में
फिर रंग जाते हैं सब
मोमबत्तियां जलाकर
न कभी जनता जगाई जा सकी
न सत्ता को विरोध का एहसास होता है
कुछ आकृतियों में
सजाकर रखी गयीं
मोमबत्तियां
देखने में सुन्दर दिखती हैं
आखिर
केवल दीवाली में ही
जलाने के लिए नहीं होती मोमबत्तियां
कुछ नारे भी हवा में गूंजते हैं
कुछ गीत गुनगुनाए जाते हैं
कुछ गज़लें भी गायी जाती हैं
दुष्यन्त कुमार की
बिना उनका मतलब समझे
लेकिन अगर
पीर पर्वत सी हो गयी
तो पिघलेगी कैसे
उसके लिए आंच कहां है
मोमबत्ती की गरमी से तो
ये पर्वत पिघलने से रहा।
- बृजेश नीरज
Comment
मन के आक्रोश को सही शब्द दिए हैं आपने पीर पिघलाने के लिए मोमबत्ती नही मशाल,ज्वालामुखी की जरूरत है हमे ही जलानी है
गाँधी जी के तीन बंदर बनकर कैसे काम चलेगा बहुत प्रभावशाली रचना हेतु बधाई ब्रजेश जी
आपकी टिप्पणियों के लिए धन्यवाद! आपका मार्गदर्शन अपनी रचनाओं पर सदैव चाहुंगा।
सादर।
बृजेश
लेकिन अगर
पीर पर्वत सी हो गयी
तो पिघलेगी कैसे
उसके लिए आंच कहां है
मोमबत्ती की गरमी से तो
ये पर्वत पिघलने से रहा।
आदरणीय बृजेशजी सुन्दर व्यंग ... बधाई
आदरणीय बृजेश सिंहजी,
मार्मिक अभिव्यक्ति, सुन्दर कटाक्ष।
बधाई।
विजय निकोर
सामयिक हालातों पर अंतःकरण की पीड़ा को बयान करती सुन्दर रचना आदरणीय ब्रजेश नीरज जी सादर बधाई स्वीकारें.
मोमबत्तियां जलाकर
न कभी जनता जगाई जा सकी
न सत्ता को विरोध का एहसास होता है
ग़ज़ब !
समाज की अन्यमनस्कता के विरुद्ध कवि की झुंझलाहट समझ में आती है. उसे निरुपाय होना बर्दाश्त नहीं. कवि का अंदेसा, कि उद्येश्य भले सार्थक हो यदि माध्यम का संयोजन और माध्यम का पैनापन विन्दुवत न हुए तो सारा कुछ निरर्थक है, पाठक को झकझोरता हुआ उससे हामी लेता है. यह तथ्यपरक कविता बहुत संभावनाएँ जगाती है.
आपका हार्दिक स्वागत है, बृजेश सिंहजी.
बहुत सटीक कटाक्ष | यहाँ सच में कुछ नहीं होने वाला |
मोमबत्ती की गरमी से तो
ये पर्वत पिघलने से रहा।
बहुत खूब.
बधाई
गणेश जी आपका आभार! आपकी टिप्पणी ने लिखने का साहस बढ़ाया।
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लेकिन अगर
पीर पर्वत सी हो गयी
तो पिघलेगी कैसे
उसके लिए आंच कहां है
मोमबत्ती की गरमी से तो
ये पर्वत पिघलने से रहा।//
किस अंधेरे कोने में ढ़केल दिया आपने , सच वहाँ से कुछ दिखाई नहीं दे रहा है, किन्तु इसी अँधेरे में रौशनी की तलाश करनी होगी वरना गांधी जी के बन्दर नहीं अपितु सिर्फ बन्दर बन कर रह जायेंगे , बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना आदरणीय ब्रिजेश जी , इस कठोर किन्तु मार्मिक अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकार करें ।
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