क़लम कोमा मे आ गयी है मेरी,
ब्रेनस्ट्रोक ज़बरदस्त लगा है इसको,
रगों मे दौड़ती स्याही पे बड़ा प्रेशर है,
क्या लिखे, क्या ना लिखे, कितना चले, कैसे चले,
सुना था तेज़ चलेगी ये तलवार से भी,
इस दफ़ा खुद ही कट के रह गयी ज़ुबान इसकी,
कोई राजा है नाम का मगर पिशाच है वो,
नहीं रघुराज का, प्रताप है रावण का वो,
तोड़ देता है वो उंगली जो उठी हो उस पर,
फोड़ देता है वो आँखे ,उसे तरेरे जो,
क्या मज़ाल कर ले कोई ओवरटेक गाड़ी उसकी,
कुचल देता है पल में ऐसा कर के देखे कोई,
करोड़ों रखे है , फिर भी भूखा है अभी,
काले धंधों की फेहरिस्त का कोई छोर नही,
मर्डर, किडनॅपिंग हो या गाँव जलाना हो कोई,
बेअसर उस पर है पोटा का सोटा भी,
राह चलते हुए देखो उसे तो पाप लगे,
वज़ीर बन के गया बैठ कोढ़ मे खाज हुई,
रख दिया हाथ सर पे सूबे के हाकिम ने भी ,
वाह क्या कहना अब तो हर तरह से मौज हुई,
फँस गया इस दफ़ा फरिश्ता एक चंगुल मे,
जैसे भटका हुआ हिरण हो कोई जंगल में,
ज़िया-उल-हक़ था जिया करता था वो हक़ के लिए,
था वफ़ादार वतन का बिका ना किसी के लिए,
गो कि वो बिक गये सिपाही, जो थे साथ गये,
अकेले छोड़ चले आए मौत के मुँह मे,
जाने क्या बीती उस पर,किसने बाँध कर मारा,
पहले बेकार किए पैर फिर सीने पर मारा,
वो बहादुर निहत्था वहीं शहीद हुआ,
सब जानते हैं, किसके इशारे पर ये काम हुआ,
उसकी परवीन को अब कौन हक़ दिलाएगा,
लाख रोए पटक के सर , ना अब वो आएगा,
महज़ तेरह महीनों का सुहाग लाई थी,
पचीस लाख का चेक चूड़ीयाँ ना ला पाएगा,
कोई इस्तीफ़ा कोई जाँच सी बी आई की,
उसकी चूनर में अब तारे ना लगा पाएगा,
करो कुछ ऐसा कि शहादत ना यूँ बेकार जाए,
जो होता आया है वो अब यहीं पे रुक जाए,
जिनके दामन पे हों ख़ूं के अनगिनत धब्बे,
उनको अहलकार बनने से रोका जाए,
महज़ इस्तीफ़ा नही ब्लॅकलिस्ट कर दें उन्हें,
काले धंधों औ करतूतों की घनी जाँचें हों,
है हक़ हर किसी को जानने का आर टी आई के तहत,
उम्मीदवार है जो उसके माज़ी के साए.
चोर हो तो सड़े जेलों में खूनी फाँसी चढ़े,
ना कि मासूम ,निर्दोषों को हलकान करे,
चैन से जीने का, खुली हवा में सांस लेने का,
सभी को हक़ है किसी से ना ये छीना जाए,
है लोकतंत्र सबका, सबके द्वारा, सबके लिए.
तानाशाही का अंत तो क्रांति से होना ही है,
ना रोना अब तू ऐ परवीन कसम हिम्मत की तुझे,
शहीद हो गया वो शहादत तेरी है हुई,
गवाह तारीख है,हिटलर, सद्दाम ओसामा की,
खुदा के घर मे देर ज़रूर , अंधेर नही...
Comment
न्याय व्यवस्था की बेबसी, क्या कर्मशील के लिए कोई बेबसी नहीं होती, मद्रास हाईकोर्ट में जस्टिस च्नाद्रू औसतन ६० फैसले रोज
सुनारे है (देखे मेरी राधना "काम करे निष्काम-लक्ष्मण लडीवाला") रचना के कथ्य के लिए बधाई सरिता सिन्हा जी
दिन प्रतिदिन बढ़ते अपराध से मन बहुत ही दुखी है! कही कोई लगाम नहीं लग रही. न्याय ब्यवस्था की बेबसी भी अजीब है कि सजा भी नहीं मिलती जल्द किसी भी अपराधी को.....
हार्दिक बधाई इस रचना पर.
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