शख़्स जब वो इधर से गुजरा है
एक पत्थर जरूर पिघला है।
दिल मेरा बार-बार धडका है,
क्यूँ मुझे कोई डर सा रहता है।
मेरा महबूब मेरा इतना है,
ज़िन्दगी भर की कोई आशा है।
चाँदनी आज और बढ गई है,
चाँद पर कोई जाके बैठा है।
कौन समझा है इस सियासत को,
इस सियासत का राज़ गहरा है।
आदमी कपडे तो पहनता है,
जबकि इसका वज़ूद नंगा है।
रात सारी टहल-टहल कर वो,
अपनी खामोशियों से मिलता है।
Comment
सूर्य बाली, योगी सारस्वत,सौरभ जी धन्यवाद
सौरभ जी आपकी बात पर ध्यान देना है
वाह क्या खूब मतला है ! वाह-वाह !
आखिरी शेर भी बहुत खूबसूरत बन पड़ा है. उसके लिए विशेष बधाई.
दोनों मिसरे का है से अंत होने के कारण चाँदनी वाले शेर में तकाबुलेरदीफ़ का दोष है.
आदमी कपड़े तो पहनता है.. भी हुस्ने मतला ही है. लेकिन उसका स्थान बदल जाने से दोष युक्त हो गया है. इसमें भी तकाबुलेरदीफ़ का ही दोष है.
आदमी कपडे तो पहनता है,
जबकि इसका वज़ूद नंगा है।
रात सारी टहल-टहल कर वो,
अपनी खामोशियों से मिलता है।
बहुत सुन्दर ! एक एक अश'आर अपने आपमें पूर्ण ! बहुत बेहतरीन
वाह सुजान जी क्या खूब ग़ज़ल काही है॥हर एक शेर लाजवाब...दाद कुबूल करें !
aashish ji,, thanks
चाँदनी आज और बढ गई है,
चाँद पर कोई जाके बैठा है।...........ye sher muje bhi pyara lagta hai
चाँदनी आज और बढ गई है,
चाँद पर कोई जाके बैठा है।
क्या कहने जनाब.. वाह वाह !!!
हां वीनस जी,,काफ़िया में है
वाह बहुत खूब .......
रात सारी टहल-टहल कर वो,
अपनी खामोशियों से मिलता है।
इस हासिले ग़ज़ल शेअर के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें
मतला और हुस्ने मतला के बाद कुछ अशआर के उला में रदीफ, और कुछ में काफिया का प्रयोग किया गया है उन पर नज़रे सानी फरमा लें
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