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                     हो गई होली

   जलाई चन्द लकड़ियाँ, तो हो गई होली

 खाई गुजिया पपड़ियाँ, तो हो गई होली

 हुए हुड्दंगों मै शुमार, तो हो गई होली

 निकाले  दिल के गुबार, तो हो गई होली

 पी दो घूँट शुरा, तो हो गई होली

 निकाले  चाकू छुरा, तो हो गई होली

 छानी ठंडाई भांग, तो हो गई होली

खींची अपनों की टांग, तो हो गई होली

छेड़ी वेसुरी तान ,तो हो गई होली

किया नाली मै स्नान, तो हो गई होली

 देखे रंगीन माल, तो हो गई होली

मला गालों मै गुलाल, तो हो गई होली

भैजे अश्लील सन्देश, तो हो गई होली

बनाया जौकरों सा भेष तो हो गई होली

अरे, देते बड़ों को सम्मान, तो होती होली

 थामते  किसी का दामन ,तो होती होली

  न लेते किसी की आह, तो होती होली

 दिखाते किसी को राह, तो होती होली

उठाते भ्रष्टाचार की अर्थी, तो होती होली  

  सजाते प्रगति की डोली, तो होती होली

आपसी वेमन्श्यता, बुराइयों से करते तौबा

 उड़ाते सदभावी गुलाल ,तो होती होली

साम्प्रदायिकता आतंकबाद जातिबाद के मुंह पर पोतते कालिख

 सोचते समाज, राष्ट्र हित मै, तो होती होली  

Dr.Ajay.Khare Aahatr

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Comment

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Comment by Dr.Ajay Khare on March 19, 2013 at 3:39pm

adarniy Raktale ji bahut bahut sadhubaad

Comment by Ashok Kumar Raktale on March 19, 2013 at 12:51pm

उठाते भ्रष्टाचार की अर्थी, तो होती होली  

  सजाते प्रगति की डोली, तो होती होली

आपसी वेमन्श्यता, बुराइयों से करते तौबा

 उड़ाते सदभावी गुलाल ,तो होती होली

साम्प्रदायिकता आतंकबाद जातिबाद के मुंह पर पोतते कालिख

 सोचते समाज, राष्ट्र हित मै, तो होती होली  

 

आदरणीय डॉ. अजय खरे साहब, बहुत सुन्दर रचना, रचना के दुसरे भाग ने तो मन मोह लिया. भरपूर बधाई स्वीकारें.सादर. 

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