याद है
वो अपना दो कमरे का घर
जो दिन में
पहला वाला कमरा
बन जाता था
बैठक !!
बड़े करीने से लगा होता था
तख्ता, लकड़ी वाली कुर्सी
और टूटे हुए स्टूल पर रखा
होता था "उषा" का पंखा .....
आलमारी में होता था
बड़ा सा "मर्फी" का रेडियो ..
वही हमारे लिए टी० वी० था
सी० डी० था और था होम थियेटर ...
कूदते फुदकते हुए ..
कभी कुर्सी पर बैठना
कभी तख्ते पर चढ़ना ..
पापा के गोद में मचलना ..
दिन भर
कोई न कोई
आता ही रहता था ...
मम्मी लगातार चाय बनाने में
व्यस्त रहती थी..
बहनों के द्वारा बनाई गयी पेंटिंग जो..
"बैठक" की शान हुआ करती थी ...
सारा दिन कोई न कोई तारीफ़ ...
करता ही रहता था..
वो चाहे आयूब चाची हों.. या सुलेमान मास्टर ...
समय बिता ...
सपने कुछ बढे
"बैठक" को सँवारने मैं ...
हम सभी कुछ न कुछ करते ही
रहते थे..
मम्मी की पुरानी साड़ियों..
से बनाये परदे ..
इसी का नतीजा थे..
और इस तरह सजने, सँवरने ...
लगी हमारी प्यारी "बैठक" ...
सुन्दर "बैठक" के सपने ...
बनते और पनपते रहे..
उन सपनों के जंजाल को लिए ..
न जाने कितने वर्ष यूँ हीं बीत गए ...
समय के साथ फेंगशुई, वास्तु की ..
बारीकियां भी पढता रहा, गुनता रहा..
सजाता रहा अपनी .. .
"बैठक" ...
अब वो लकड़ी वाली कुर्सी
की जगह कलात्मक गद्देदार ...
सोफे हैं,
सुन्दर सी शीशे की मेज है..
वास्तु के अनुसार ..
मछली का एक्वेरियम भी लगा है..
और तो और ...
मम्मी, पापा की सुन्दर फोटो ...
भी "बैठक" मैं घुसते सामने नहीं ..
लगा सका..
वास्तु के दोष के कारण..
वो भी एक तरफ दिवाल पर चिपकी है..
जो लगातार यह सब देख रही है..
बहुत दुःख है..
जिसने हमें इस काबिल करा..
उसकी फोटो भी सामने नहीं
लगा सका.....
"बैठक" को बहुत ही...
नजाकत से रखा है...
चमचमाता हुआ सफ़ेद फर्श है...
बहुत करीने से सफाई दोनों टाइम ..
होती है..
तमाम चीजें बड़ी नफासत से..
रखी हुयी हैं..
पर नहीं आता है अब कोई मेहमान !!
कोई आता भी है..
तो बहुत जल्दी मैं ...
दरवाजे की दहलीज़ से लौट जाता है..
खड़े - खड़े विदा कर दिया जाता है..
महल जैसी "बैठक" में ...
बैठने उठने के
नियम तय किये गए हैं..
हर किसी को थोड़े ही बैठाया जाता है..
"बैठक" में ..
उन गद्देदार सोफों पर..
इसलिए ..
न सजते हैं काजू अब प्लेटों में ..
न ट्रे मैं चाय सजती है ..
और "बैठक" हमारी बंद ही रहती है..
मिटटी के डर से ..
कहीं गन्दी न हो जाये "बैठक" ...
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
ब्यूटीफुल, बड़ी सच्चाई के साथ आपने हर चित्र उकेरा है, पूरी रचना हम सबके जीवन के कई परतों को उघाड़ती हुई जीवंत होती है, बहुत बधाई इस बेहतरीन प्रस्तुति पर । एक बात --- वास्तु का संबंध रचना से जुडता नहीं दिखता, शायद कृत्रिमता के अर्थ में आपने उसको भी अपने चित्र में समेटा है जो भाव की कसौटी पर फिट होते हुए भी रचना से अलग सी खड़ी दिखती है, सादर
आदरणीय अमोद जी:
बहुत ही सच्चा चित्रण है,
तब का और आज का...!
...बधाई।
सादर,
विजय निकोर
सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री आमोद श्रीवस्तव जी !!!!!!!!!!!!!!!
आपकी रचना ने मुझे मेरे बचपन से पचपन अर्थात आज में 13 वर्ष पूर्व तक के जीवन संघर्ष की याद ताजा करदी |
तब तक किचन के अतिरिक्त एक कमरे में ही सब कुछ सिमटे हुए बसर करते, बच्चो को पढ़ाते,नौकरी करते,
अम्मा को फटे कपडे, तो कभी गुदड़ी, कभी परदे सिलते, रात को एक ही कमरे में देर तक बच्चों के सोने का
इन्तजार करते समय बीत जाता था | सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री आमोद श्रीवस्तव जी
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