शोभना जितनी सुन्दर थी उतनी ही बेबाक और गर्वीली भी थी. वह अमरीका से उच्च शिक्षा प्राप्त थी. होम मिनिस्ट्री में बहुत ही ऊँचे पद पर आसीन थी. उसे शादी नाम से बहुत चिढ़ थी. जब वह पैंतीस साल की हो गयी तो एकदिन उसके पिता ने उससे कहा- “ शोभना ! अगर तुम्हें कोई पसंद हो तो बता देना मैं तुम्हारी शादी उसीसे कर दूँगा. ”
शोभना ने भी सोचा अब शादी कर ही लेनी चाहिये. अतः अपने पिता से बोली – “ठीक है पिता जी, लेकिन मुझे मेरे ही ग्रेड का वर चाहिये. ’’
शोभना स्वयं अपने वर की तलाश करने लगी. लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी.
जिन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा वे या तो बाल-बच्चे वाले विधुर थे या जो उसके लायक थे उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि उसकी उम्र ज़्यादा है. जो मिल रहे थे उनकी न तनख्वाह और न ही डिग्री मेल खाती थी.
समय गुजरता जा रहा था. शोभना को भी महसूस होने लगा कि एक जीवनसाथी की बेहद ज़रूरत है. मगर वह अपने अभिमान और ज़िद्द पर अड़ी रही . .. . .और एक दिन ऐसा वक्त आया जब उसने यह महसूस किया कि उसकी तमन्ना तमन्ना ही रह जायेगी.
अकेलापन उसका सारा जीवन अजगर की तरह निगल गया. इस भरी दुनिया में एक अंधेरे कोने के सिवाय कुछ नहीं बचा. वह चीख चीख कर लोगों से कुछ कहना चाहती थी मगर क्या कहे.
जब कहने का वक्त था तब आडम्बर का लबादा इतना भारी था कि चाह कर भी उठा नहीं पायी थी.
अब जब अपनी मानसिक वृत्तियों को अपने हाव-भाव से प्रदर्शित करना चाहती है तो लोग तरस खाकर कहते हैं – “ बेचारी अकेली औरत पागल हो गयी है.”
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Comment
कुंती जी, बात आपकी सही है कि जीवन में अकेलेपन को सहना भी बड़ा कठिन होता है. आपने अपनी लघु कथा में इस पर बहुत खूबी से जिक्र किया है. मेरे कहने का मतलब सिर्फ ये था कि कई बार इस अकेलेपन के भयावह को खत्म करने के बाद भी कई लोगों का जीवन और तरह से भयावह बन जाता है. ये जीवन भी बड़ा विकट है. .
आदरणीया कुंती जी:
क्या सही है, क्या सही नहीं है ... इसी सोच से
मानसिक वृत्तियों को जगाती इस लघु कथा के लिए बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आस-पास की या रोज़मर्रा की घटनाओं से बिम्ब ले कर हुआ रचनाकर्म समाज की धड़कन को ही बयान करता है.
कहानी का विस्तार सहज है. यह भी अवश्य है कि कथानक में कसावट आते-आते आयेगी, लघुकथा के वर्तमान प्रस्तुतिकरण को मूल पोस्ट से मिलान कर देखियेगा, प्रस्तुतियों का मानक साधने में आसानी होगी.
लघुकथा हेतु बधाई, आदरणीया.
शन्नो जी यह एक लम्बी बहस है. शादी के लड्डू का नहीं अकेलेपन का है. एक सचाई जो बेहद भयावह होता है. इंसान जब किसीके
साथ पाने के लिये तरस जाता है.आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
कहानी का मंतव्य अगर बिन शादी के अकेले रह जाने से दुखी होने का है तो अच्छी है.
लेकिन ये जीवन भी बड़ा अजीब है. जो शादी के लड्डू खाए वो पछताये और जो ना खाये वो भी.
कोई जरूरी नहीं कि इस दुनिया में हर कोई जीवन साथी पाकर खुश ही हो. आजकल तमाम लोग अविवाहित रहकर शादी शुदा लोगों के जीवन की समस्यायों को देखकर अपने को लकी समझते हैं :)
अच्छा प्रयास है !
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