कल मैंने अपनी अप्रकाशित
कविताओं का एक बण्डल
नुक्कड़ के कोने पर बैठने वाले
छोले बेचने वाले को सौंप दिया
उसने इसे मुँह बंद करके हँसते हुए
स्वीकार कर लिया
और उसने द्वेष से
प्रभावित हुए बिना
जबाब दिया
अंततः महोदय
अब आपकी कविताएँ पढ़ी जाएँगी .
मैं उन सभी लोगों के बारे में सोचता हूँ
जो नमकीन छोले खरीदते हैं
और हाथ में गर्म दोने पकड़ते हुए
जिसके नीचे मेरी कविताएँ रहती हैं
कुछ ध्यान देते हैं और कुछ बिलकुल नहीं,
और मैं अपनी खुशामद करते हुए सोचता हूँ
एक व्यक्ति को यह बोनस में प्राप्त होता है
पांच रूपये खर्च करते हुए .
अपने घर की ओर जाते हुए
दुविधा में और शायद प्रसन्नता से
वह कविता को पढ़ता है
तब अपने हाथों की गन्दगी को
उसी कागज से पोंछ डालता है
वह कागज को नीचे गिरा देता है
जो फड़फड़ाते हुए फुटपाथ पर जा गिरता है
तब वह किसी उत्सुक राहगीर से उठाया जाता है .
मैं अपने जेब में पांच रूपये रखते हुए
अपने घर की ओर जाता हूँ
छोले वाले की बातों का
चिंतन करते हुए सोचता हूँ
अनजाने में उसके द्वारा दिया गया
रिश्वत शायद रिश्वत नहीं है
और बिना किसी विद्वेष से
मैं एक और फुटपाथी कवि हूँ .
Comment
धन्यवाद ! आदरणीया राजेश कुमारी जी .
आदरणीय राजीव झा जी बहुत मार्मिक लिखा बस इतना ही कहूँगी हम सब एक ही कश्ती के सवार है अपनी धुन में मस्त कोई नजर डाले न डाले चप्पू चलता रहे चलता रहे बस!!
coonti जी, सराहना एवं प्रथम प्रतिक्रिया के लिए आभार .शायद अतिरंजना में कुछ कड़वी सच्चाई आ गई हैं .
आदरणीय जवाहर जी,सादर .आपने तो निरुत्तर कर दिया .क्या पता लोगों को छोले पसंद आते हैं या उसके नीचे छुपी किसी बेनाम कवि का दर्द .आपकी प्रतिक्रिया और हौसला अफजाई के लिए आभार .
आदरणीय झाजी, सादर अभिवादन!
उसी छोलेवाले से मैंने भी छोले खरीदे थे!
कविता पढ़ पता ही नही चला
कि आंसू किसके वजह से निकले थे
छोले के तीखापन की वजह से या कविता की भावना से ...
बेहद कड़वी सच मगर क्या करें कवि तो बेहाल है कविता कोई पढ़े ना पढ़े लिखना उसकी मजबूरी है .रजीवजी प्रयास जारी
रखिये.हम सबका यही हाल है.
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