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बह्रे मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़
122/122/122/12
***********************
न पीपल की छाया, न पोखर दिखे;
मेरे गाँव के खेत बंजर दिखे; (1)
हैं शुअरा जहाँ में बड़े नामवर,
मगर कब 'असद' सा सुख़नवर दिखे;(2)
कहूँ क्या मैं मा'शर की हालत हुई,
ज़ुबां पर ख़ुदा हाथ ख़ंजर दिखे;(3)
जो मज्लिस में तल्क़ीन दें सब्र की,
वो गोशे में आपे से बाहर दिखे;(4)
न मिल पाया बंदा कोई काम का,
जो लफ़्फ़ाज़ ढूँढ़े सरासर दिखे;(5)
लहू से रही सुर्ख़ बरसों ज़मीं,
ज़रा अब तो कश्मीरी केसर दिखे;(6)
बदल जाए ये बेख़ुदी होश में,
इक अर्सा हुआ तल्ख़ तेवर दिखे;(7)
बदन पर कफ़न सी सफ़ेदी न हो,
तेरे पाँव में फिर महावर दिखे; (8)
कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;(9)
वतन का भला हो मुक़र्रर तभी,
तरक़्क़ी जो हर सू बराबर दिखे; (10)
तमन्ना है 'वाहिद' मेरी बस यही,
मकां-रोटी सबको मयस्सर दिखे;(11)
***********************

  • वाहिद काशीवासी

   {16032013}
-------------------------------------
मा'शर=मित्रमंडली; तल्क़ीन=सदुपदेश/नसीहत;

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by अरुन 'अनन्त' on April 5, 2013 at 3:23pm

भाई वाह संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' साहब क्या सुन्दर ग़ज़ल हुई है, मतले से लेकर मक्ता तक एक से बढ़कर एक अशआर हुए हैं. इस शानदार ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई के साथ साथ ढेरों दाद भी कुबूल फरमाएं.

Comment by ram shiromani pathak on April 5, 2013 at 11:49am

कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;(9)
वतन का भला हो मुक़र्रर तभी,
तरक़्क़ी जो हर सू बराबर दिखे; (10)

आदरणीय वाहिद साहब, नमस्कार!

बहुत ही सुन्दर गजल पेश की आपने!बहुत-बहुत वधाई स्वीकारें। 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 5, 2013 at 8:57am

आदरणीय,वाहिद काशीवासी जी,  सुप्रभात!  ‘बदन पर कफ़न सी सफ़ेदी न होए तेरे पाँव में फिर महावर दिखे!8‘  सुन्दर सकारात्मक विचारणीय प्रसंग।  अतिसुन्दर, बहुत-बहुत वधाई स्वीकारें। 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 5, 2013 at 7:40am

आदरणीय वाहिद साहब, नमस्कार!

बहुत ही सुन्दर गजल पेश की आपने!

वतन का भला हो मुक़र्रर तभी,
तरक़्क़ी जो हर सू बराबर दिखे; (10)
तमन्ना है 'वाहिद' मेरी बस यही,
मकां-रोटी सबको मयस्सर दिखे;(11)

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