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मालदार गरीब का मुखौटा

कई दिनों तक सोचने के बाद मेरे जेहन में ऐसा कोई विचार नहीं आ रहा था, जिसे मैं लिख सकता। पर अचानक ही सूझा कि देश में बढ़ती गरीबी पर लिखूं। सहसा ही ध्यान आया कि अब तो केवल मालदार गरीबों का ही बोलबाला है। ऐसे मालदार गरीबों से मेरा रोज ही पाला पड़ता है। जब मैं किसी गली से गुजरता हूं तो उनसे मेरा नमस्कार होता है, जिनके पास बंगला, कार समेत सभी एशोआराम के साजो-सामान हैं।
एक दिन मेरे पड़ोसी ने मुझे गरीब बनने की नसीहत दे डाली और वो सारे फण्डे बता डाले, जिससे मालदार होते हुए गरीबी का चोला ओढ़ा जा सके। मैंने भी उसकी नसीहत को सर आंखों पर लेते हुए ऐसा गरीब बनने की ठान ली। पहले उन्हें देखकर मुझे थोड़ी सी जलन होती थी कि उनके पास मुझसे ज्यादा संसाधन है, फिर भी वे गरीब होने का सर्टिफिकेट लिए बैठे हैं। पर उनकी नसीहत के बाद मेरी जलन कुछ कम हुई और कुछ दिनों में ही मैंने पड़ोसी के बताए अनुसार, औपचारिकता पूरी की और मेरे घर सरकार के कारिंदे गरीब होने का प्रमाण पत्र दे गए और दो मंजिला घर के गेट पर गरीबी का ठप्पा लग गया। जिस दिन मैं गरीब बना, उस दिन ऐसा लगा, जैसा यह मेरी जिंदगी की एक बड़ी उपलब्धि है।
हमारे पास वैसे भगवान का दिया हुआ सब कुछ है, लेकिन सरकार की दरियादिली के चलते हमने भी गरीब बनने का मन बना लिया। माल तो हमें पुरखौती से मिला है, पर मालदार गरीब का चोला ओढ़ना, इसलिए भी जरूरी है कि जब सरकार के दिए को, लेने से कोई हिचक नहीं रहा है तो भला, मैं क्यों पीछे रहूं। इन दिनों मुझे खबरनवीसों से पता चला कि गरीबों की तादाद लगातार बढ़ रही है। वैसे भी हमारे देश में बहुमत का ही जिंदाबाद होता है तो भला मैं भी गरीब के बहुमत में हाथ बंटाने कैसे हिचकिचाता। सो, मैंने भी बहती गंगा में हाथ धोने का ही नहीं, बल्कि नहाने का ही पक्का इरादा कर लिया। सरकार ने भी इसके लिए मुझे पूरा अवसर प्रदान किया और हमारे परिवार को जैसे, संजीवनी मिल गई। अब तो रोज-रोज काम करने की झंझट कहां, महीने भर की व्यवस्था एक ही दिन में हो जाती है, वह भी बिना हाथ-पैर मारे। हम बस निठल्ले बनकर रह गए हैं। एक दिन की कमाई के बाद हफ्ते भर तक काम करने की अब कहां जरूरत। परिवार के लोग भी खुश हैं कि घर में पहले कहीं से कुछ नहीं आ रहा था, अब मुफ्त में कुछ चीजें तो मिल जा रही हैं, साथ ही रियायत भी। ऐसे में मैंने भी कई लोगों को गरीब बनने की बात कही और उन्होंने मान भी ली। आज स्थिति है कि मेरे प्रयास से आसपास के सभी परिवार के लोग गरीब बन गए हैं। इसके लिए उन्हें एक प्रमाण-पत्र भी मिला है, जिसे दिखाकर वे कई और तरीके से लाभान्वित हो सकते हैं या कहें कि हो रहे हैं। उनके पास जीने की वह चीज है, जिससे उनकी जिंदगी पूरी विलासिता में बीत सकती हैं, लेकिन वे भी भला, भीड़ में शामिल होने से कैसे परहेज करते।
इस बीच मुझे यह जानकर तकलीफ हुई कि अब सरकार के फरमान के बाद मालदार गरीबों की पहचान की जा रही है, ताकि उन्हें फिर से पुराना तमगा दिया जा सके। ऐसे में लगने लगा कि अब वे गरीबों के साथ बहुत बड़ा अन्याय करने जा रही हैं। भला हम गरीब थे, तो किसका क्या बिगड़ रहा था। इस बात से मन को ठेस तो लगी, लेकिन मैं यह सोचकर खुश था कि चलो, कुछ समय तक तो गरीब होने का फायदा मिला। मुझे लगा कि अब इस गरीब के मुखौटे को साथ लेकर चलना मुश्किल है तो मैंने इस मुखौटे को उतार फेंकने में ही भलाई समझी।
राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं
लेखक इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकार हैं

जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा - 098934-94714

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 21, 2010 at 6:07pm
सुंदर एवं सटीक व्यंग ,
कृपया निम्न लिंक जरूर देखे और अपना विचार रखे
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:34997

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on November 18, 2010 at 7:06pm
साहब बड़े दयालू हैं
खाते रोज़ कचालू हैं
दफ्तर में ये सोते हैं
कुछ काम कहो तो रोते हैं
बीमार पड़ी जो फाइल है
यह तो इनका स्टाइल है
सारी की सारी पेंडिंग है
ऊपर से अंडरस्टैंडइंग है
साहब की फरमाइश है
कुछ नोटों की गुंजाईश है
बड़ी कार में चलते हैं
छाती पर मूंग ये दलते हैं
घर में दो AC चलता है
औरों का दिल क्यों जलता है?
हम तो समझे एक बात नहीं
तुमको क्यों इतनी टेंशन है
जो बी पी एल की सूची में
साहब का रजिस्ट्रेशन है

कृपया ध्यान दे...

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