बहार की व्यथा
अभी कुछ साल ही तो बीते हैं |
बसंत की तरह निरंतर प्रसन्नचित,
उजड़े चमन को भी खिला देने वाला मै,
साथ लिए चलता था सुरभित मलय पवनों को |
हर-एक गुलशन को चाहत थी मेरी,
मेरे स्पर्शों की, मेरे छुवन की |
हर कली मेरा स्पर्श पाकर फूल होना चाहती थी |
मै भी खुश होता, सबको खुश करता, आगे बढ़ जाता |
धीरे-धीरे सब कुछ बदला |
जगह, समाज, धर्म, मंदिर, मस्जिद,
मतलब सब कुछ |
तब मुझे दुःख नहीं हुआ |
मै क्या जानता था की इस जगह की बू इस कदर दूषित है |
धीरे-धीरे मेरी सुरभित गंध कब जहरीली गैस बनी,
इन्द्रधनुषी रंगों के बटवारों की भांति मै जान न सका,
कब बैगनी, कब नीला, कब हरा, नारंगी, लाल |
मेरा मन भी हर वस्तु की भाँति बदल गया |
खुशबू फैलाने की लालसा, इसकी भी जाती रही |
आज मै गुलशन खोजता फिर रहा हूँ |
कहीं कोई कली, कोई फूल नजर नहीं आते |
कोई कली मिले तो भी कुम्हला जाती है मेरे स्पर्श से |
मै कितना बदल चूका हूँ |
ये नयी जगह, नए लोग, प्रतिदिन सबकुछ नया |
पहले तो हर दिन और पुराना होता था|
ऐसे तो ख़त्म हो जाएगा गुलशन,
भाई चारे का, सौहार्द्र का |
फिर फूल कहाँ होंगे, कहाँ खिलेंगीं कलियाँ?
क्या ख़त्म हो जायेगी मेरे जैसी हर बहार?
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