रंग भरे
फागुन के चेहरे
संग रीता
सुख चैन
टनटन करती
भाग रही फिर
अग्निशमन की वैन
होंठ चाटता
बेबस राजू
सोच रहा
फिर आज
चूते छप्पर
सर्द रात दे
तुष्ट नहीं क्यों ताज
तैर रही
उसकी आंखों में
मात-पिता की देह
आवास इंदिरा
के नीचे ही
कुचल गया
जो नेह
है तो वो
जनजाति का पर
पाए कहां प्रमाण
दैन्य रेख पर
अमला बैठे
युद्ध नहीं
आसान
फटकार मिली जब
स्कूलों से
थे मुखिया, नेता
मौन
मन मसोसकर
चाय पकड़ ली
राह दिखाए कौन
बहिना भी तो
हुई सुहागिन
कट्ठे-डंडे बेच
चू पड़ते हैं
अब झोंपड़ के
खूंटे, रस्सी, पेंच
तिसपर फिर से
जेठ चलेगा
चाबुक को
फटकार
चिंगारी की
मुहर लगेगी
हर गरीब के द्वार
सोच रहा है
राजू फिर से
किसको देगा वोट
पेट पुकारे
रोटी-रोटी
झोंपड़ मांगे
नोट
(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
कई योजनाएं फिर भी परिस्थितियाँ जस की तस हैं. बहुत सुन्दर रचना में आपने इस दर्द को उभारा है. आदरणीय राजेश जी सादर हार्दिक बधाई स्वीकारें.
आदरणीय संदीप जी, रचना आपको अच्छी लगी हमें संतुष्टि मिली, ये कविता उस सच्चाई पर आधारित है जिसे मैंने बड़े करीब से देखा है हर गरीब के पास दो ही विकल्प होते हैं वोट या नोट क्योंकि वह जानता है कि वोट देने से उसकी समस्या नहीं मिटेगी अत: वह वोट को नोट से तौलने लगता है और हर उस दल के झंडे उठाता है जो उसे नोट दे सकते हैं, सादर
आदरणीय कुंति मुकर्जी साहिबा, आपने बिलकुल सत्य कहा राजू हर गरीब में जीता है आपका हार्दिक आभार
आदरणीय राम शिरोमणि जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय राजेश जी सादर प्रणाम
बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है आपने इस रचना में
ग़ज़ब की परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है एक ग़रीब आदमी को
और उसके पास विकल्प कम होते हैं
बहुत ही जोरदार रचना के लिए बधाई स्वीकार करें
हर गरीब इंसान जो राजू के शरीर में जीता है..साल दर साल उसकी यही समस्या है . समाज का बड़ा ही नाजुक नब्ज पकड़ा है आपने
राजेश जी . बधाई .
सोच रहा है
राजू फिर से
किसको देगा वोट
पेट पुकारे
रोटी-रोटी
झोंपड़ मांगे
नोट//////////////// bahut hi marmik chitran kiya hai apne adarneey jha ji ....hardik badhai
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